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________________ जैन महाभारत बांधवो को बहुत तग किया था। कीचक,बडा ही बलवान; क्रूर, असहन शोल और दुष्ट प्रकृति का पुरुष था, वह मारा गया अव हम. मत्स्य नरेश से अच्छी तरह निबट सकते है।" . दुर्योधन ने कहा-“त्रिगर्तराज ! लो.तुम्हारी चिन्ता तो समाप्त हुई। अब जब कहोगे तभी तुम्हारे शत्रु से बदला ले लिया जायेगा, पर पहले यह तो सोचो कि पाण्डवो का पता कैसे चले। उनके अज्ञात वास का समय समाप्त होने वाला है। यदि शोघ्र ही उनका पता न चला तो अज्ञात वास काल समाप्त होते ही वे गुर्राते हुए यहा आ पहुचेगे और एक बड़ी मुसीवत खडी हो जायेगी। यद्यपि वे बेचारे अब हमारा कुछ भी नही बिगाड सकते परन्तु फिर भी यह कितना अच्छा हो कि हम अज्ञात वास काल मे ही उन्हे ढूढ निकाले और वे यहा आकर क्रोध को पीते हुए पुन बारह वर्ष के लिए जगलो की खाक छानने के लिए चले. जाये ।" ' कर्ण ने परमर्श देते हुए कहा- "मै आप के विचारो से; सहमत हूँ। मेरी राय से तो अब दूसरे कुशल गुप्तचर भेजे जाये जो भिन्न भिन्न देशो में जाये तथा सुरम्य सभाओ मे, सिद्ध महात्माओ के आश्रमो मे, राज नगरो में, गुफाओं मे वहा के निवासियो से बड़े ही विनीत शब्दो मे युक्ति पूर्वक पूछ कर पता लगावे ।" दुशासन बोला-"राजन् ! जिन दूतो पर आपको विशेष भरोमा हो वही शीन ही मार्ग व्यय लेकर चले जायें। देरी करना ठीक नहीं है।" दुर्योधन ने तत्वादी द्रोणाचार्य की ओर दृष्टि डाली, तो वे बोले-"पाण्डव शूरवीर, विद्वान, बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ और अपने ज्येष्ठ भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा से चलने वाले है। ऐसे महापुरुप न तो नष्ट होते हैं और न किसी से पराजित हो। उन मे धर्मराज तो बड़े ही शुद्धचित्त, गुणवान, सत्यवान नीतिमान, पवित्रात्मा और तेजस्वी हैं। अपनी शुभ प्रकृति के कारण उन में इतनी शक्ति है कि जब वह छुप कर रहना चाहे तो
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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