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जैन महाभारत
कर दिए । पाण्डव सेना की पक्तियां कई जगह से टूट गई और उन्हे पीछे हटना पड गया। यह देख युधिष्ठिर बड़े चिन्तित हुए। ...
... युधिष्ठिर पुन.चिन्तित हो उठे। बोले - "अर्जुन अभी तक लौटा नही और सात्यकि की भी कोई खबर नही आई. और उधर से बार बार पाँचजन्य को ध्वनि आ रही है, गाण्डीव की टकार सुनने को मेरे कान बेचैन हा रहे हैं, टकार सुनाई हो नहीं देती। मेरा मन शका के मारे काप रहा हे , न जाने क्यो - मुझे चिन्ता हो रही है। कही मेरे प्रिय भ्राता अर्जन पर कोई सकट तो नही आ गया । भीमसेन ? मैं बहुत चिन्ताकुल हो रहा हूं । मेरी समझ मे ही नही आता कि क्या करू ?"
युधिष्टिर को इस प्रकार , व्याकुल देखकर भीम सेन-भी चिन्ताकुल हो गया. उसने कहा-"महाराज ! यद्यपि में आपको चिन्ता रहित करने के लिए आपको अज्ञानुसार सब कुछ करने को तत्पर हूं। तो भी मै अपको चिन्तानिमूल समझता हूं क्योकि प्रिय भ्राता अर्जुन का कुछ विगाड सके, ऐसा तो मुझे कोई दिख ई नहीं देता। आपको मैने कभी इतना अधीर होते नहीं देखा । आप निश्चिन्त रहिए अथवा मुझ से बताईये कि क्या करू।"
""भैया! न जाने क्यों मेरा दिल बहत घबरा रहा है तुम तरन्त जागो और अर्जुन की खबर' लो ."--युधिष्ठिर बोले ! "मेरे लिए तो अर्जुन की खबर लेना-भी उतना आवश्यक है जितना आपको रक्षा करना । सात्यकि आपकी रक्षा का भार मुझ पर छोड़ कर गए हैं, अब आप ही बताईये कि मैं क्या करूं ? आपकी आज्ञा का पालन करू या आपके प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण करने के लिए. यही रहू ?"-भीम सेन ने कहा । --
"तुम मेरी चिन्ता न करो। - मुझे यहां कोई खाये नही जा रहा । अर्जुन के प्राण बहुत मूल्यवान हैं। उसकी रक्षा पहले करो। वह है तो हमारे लिए सब कुछ है। वह न रहा और तुमने मेरे प्राणों की रक्षा कर लो तो भी सव कुछ चौपट हो जायेगा । मै जो कुछ कहता हूं वही करो। तुरन्त अर्जुन की सहायता को पहुंचो।"--- युधिष्ठिर ने व्याकुल होकर कहा उस समय यह साफ़ जाहिर हो रहा था कि अर्जुन के प्रति उन्हे कितना स्नेह है। '' . .