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________________ २२२ जैन महाभारत "अजी राजकुमारी जी! योग्यता तो मेरे पास भी नहीं फटकती और विद्या की पूछती हो, तो वह तो एक मील दूर से ही मुझ से न क सिकोड कर भागती है। हा, कौरव सेनाओ को नाच गा कर रिझाना हो तो फिर वन्दी तैयार है, पर इस के लिये साजिन्दे भी दरकार है।" -वृहन्नला ने आंखे मटकाते हुए कहा। बृहन्नले ! तू मुझे निरा मूर्ख क्यो समझती है। बात वना कर बहकाने से क्या लाभ | तुझे मैं भलि प्रकार समझती हू और सौरम्ध्री तो तेरी रग रग से परिचित है।"- राजकुमारी बोली। "अजी | सौरन्ध्री का क्या ठिकाना। वह नपुंसको को भी अर्जुन समझ बैठे ? अपना तो काम नाचना गाना है, और । बेचारी सौरन्ध्री सग्राम को भी हीजड़ो का खेल समझ बैठी है। उनसे पहले यह तो पूछिए कि नाट्यशाला और सग्राम भूमि मे दूरि कितने अंगुल की होती है।" बृहन्नला ने अपने को छुपाने का भरसक प्रयत्न करते हुए कहा । ___ "तू अपनी बहानेबाजी से उस राज्य के सकट के समय काम आने से मुह छुपाती है, जिसका तूने इतने दिनो तक नमक खाया है और ऐश से रही। आज काम न आयेगी तो क्या मरहम वना कर फोडे पर लगाई जायेगी? ठीक ही है नपुमक से श्राडे समय पर काम पाने की आशा रखना रेत से तेल निकालने के समान है।" राजकुमारी उत्तरा ने क्षुब्ध होकर कहा। बृहन्नला ने इस ताने मे प्रभावित मी होकर कहा--"गजकुमारी । पाप तो इतनी सी बात पर रुप्ट हो गई। भला में आपके काम न अाऊगी तो किस के काम आ सकती है। मैं तो यह कहती थी कि आप तो ऐमी को सारथी के काम पर नियुक्त कर रही है जा घोडो ने इतना घबरानी है कि छाती वासो कूदने मी लगती है और घोडों को लगाम नो क्या अपने हृदय की लगाम तक सम्भलने मे मफन्न नहीं होती। फिर भी संकट आया है तो लीजिए अब यह काम भी कर लगी। अाप रथ जुडवाइये और इन लचकोले हाथों में घोदी की लगाम दीजिए। उम नजाकत
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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