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________________ दुर्योधन से टक्कर से हाकूगी । कि मुए कोरव मोहित न होकर रह जाये तो तव कुहिए ।" 1 उसी समय द्रौपदी वहा आ गई और उसी के साथ साथ रनिवास की अन्य स्त्रिया भी यह देखने के लिए वहा पहुची कि बृहन्नला सारथी रूप मे कैसे जा रही है । द्रौपदी ने कहा--" ग्रभी बाते ही हो रही हैं, तुम्हे तो ग्रव तक नगर से बाहर हो जाना चाहिए था। 1 " "नगर से बाहर कहा उसे तो महल से निकलने में ही मौत श्रा रही है। कहती है कि घोडो को हाकना तो यह जानती ही नही ।" राजकुमारी उत्तरा बोली । "क्यो री बृहन्नला ! क्या ऐसे समय मे भी तुम्हे हास्य परिहास ही सूझ रहा है " - द्रोपदी ने कहा । "नही जी ! हास्य परिहास तो प्राप को सूझा है । भला में और युद्ध मे सारथी बन कर जाऊ । स्वामी सुनेंगे तो क्या कहेंगे ?" - बृहन्नला वेपधारी अर्जुन ने द्रौपदी को संकेत कर के कहा । - । मकेत को समझ कर द्रौपदी बोली--"स्वामी तो स्वयं रण स्थल मे अपने हाथ दिखा रहे है यही समय है जब नरेश को तुम अपना कमाल दिखा सको । और फिर तुम्हे अपने कमाल दिखाने का अवसर भी तो मिल रहा है । एक साल पूर्ण होना चाहता है जब से तुम ने महाराज विराट का नमक खाना प्रारम्भ किया है। पत्र भी यदि अपनी वफादारी का प्रमाण देने तथा उचिन अवसर मे लाभ उठाने का प्रयत्न न किया गया तो वृहन्नला के • वास्ताविक रूप को कौन जानेगा ?" द्रोपदी का इतना सकेत पाना था कि बृहन्नला को बातो को दिया हो बदल गई, उसने कहा- "तो फिर सोरन्ध्री ! जो घोड़ा बहुत में जान पाई हूं उसे अवश्य काम लाऊगी । पर कोई भू होतो तुजाने ।"
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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