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जैन महाभारत
योद्धाओ के महासागर में तूफान सा आया प्रतीत होता था। हज़ारो पदाति, गजरोहो और अश्वरोही वीरो के हाथों मे खडग, भाले, गदाए और धनुष बाण चमक रहे थे।
कौरवों के सागर समान व्यूह की रचना को देखकर धृष्टद्युम्न ने ३ पाण्डवों की सेना को श्र गाठक व्यूह के रूप मे व्यवस्थित किया। उस व्यूह की रचना होने पर वह बहुत ही भयानक प्रतीत होने लगा। और कौरवों के व्यूह को तोड डालने मे समर्थ दिखाई देता था, उसके दोनों अङ्गों के स्थान पर भीमसेन तथा सात्यकि स्थित थे उनके साथ कई हजार रथ, घोडो और हाथियों पर सवार व पदाति सेना थी। उन दोनों के मध्य मे अर्जुन, नकुल और सहदेव थे। इनके पीछे दूसरे राजागण थे, जो अपनी विशाल सेनाप्रो के साथ व्यूह को पूर्णतः भेट कर रहे थे। उन सबके पीछे अभिमन्यु, महारथी बिराट, द्रौपदी के पुत्र और घटोत्कच आदि थे। इस प्रकार व्यूह रचना समाप्त करके युधिष्टिर ने अपने संनिको का आह्वान किया-"वीर योद्धाओ । तुम्हारे रण कौशल से बडे वड. दिग्गज धनुर्धारी, अनुभवो और जगत विख्यात शूरवोर भी थरों रहे है। तुम्हारी वीरता के सामने शत्रुनो की विशाल सेना का नाको दम है। आज फिर उन्ही से टक्कर है जो पिछले दिनो में परास्त होते चले आये हैं। वढो और अपना जौहर दिखा कर वता दो कि न्याय का सिर कभी नीचा नही होता।"
उधर दुर्योधन अपने वीरो को ललकार रहा था-"रण बांकुरो | शत्रुओ की सेना हम से बहुत कम है। हमारे पास भीम पितामह और द्रोणाचार्य जैसे अनुभवी महान सेनानायक हैं, देवता भी जिनका लोहा मानते है । विजय हमारी ही होगी। और विजय के साथ साथ यश कीर्ति और ऐश्वर्य के द्वार तुम्हारे लिए खुल जाये गे। बढो और शत्रुग्रो को दिखा दो कि कौरवो के पास विजया शूरवीरो की कमी नही, हम सारे जगत से टक्कर ले सकते है।"
रणभेरी वज उठी। शखनाद होने लगे। ललकारने और ताल ठोकने और ज़ोर ज़ोर से पूकारने की आवाजें आने लगा। दोनो ओर से चुनौतियां दी जाने लगी और इस तुमुल नाद से दो दिशामो गूज उठी। सेनाए वढी और कौरव तथा पाण्डवो के पक्ष