________________
भाष्य का विछोह
४६५
चलाईये ।'
परन्तु वे तो समझ गए थे कि अब जीवन संध्या का समय श्रागया और कुछ ही देर बाद उसकी इहलीला समाप्त होने वाली | वेशात रहे और सहर्ष वाण सहते रहे । अर्जुन का एक एक बाण उनके किसी मर्मस्थल को वीधता । परन्तु पितामह के मुख से न ग्रह निकलती और न क्रोध या पश्चाताप की ही बात | वे खड़े मुस्करा रहे थे, बल्कि कभी कभी यही कह उठते कि - " अर्जुन ! पर मुझे गर्व है कि उसके बाण ही मुझे चिरनिद्रा सुलाने मे सफल होगे ।"
दुःशासन ने चीख कर कहा - " पितामह ! कीजिए युद्ध । वरना हम कही के न रहेंगे । देखिये अर्जुन किस प्रकार आक्रमण कर रहा है । पितामह ! ' अपनो रक्षा कीजिए ।"
"दु शासन । अब तो जीवन सध्या हो चुकी । अब मेरी चिन्ता छोडो | अपनी चिन्ता करो ।" - पितामह बोले ।
उसी समय सारे कौरवो मे खलबली मच गई। और सब मिल कर पितामह से आत्म रक्षा की प्रार्थना करने लगे । क्यो कि वे स्वयं उस भीषण बाण वर्षा को रोक सकने मे असमर्थ थे ।
शान्तनुनन्दन फिर भी निष्चेष्ट खड े थे बल्कि उस समय वे जिन प्रभु की आराधना कर रहे थे । उन के मुख पर लेश मात्र भी चिन्ता न थी । कमल की नाई दमकता उनका मुख मण्डल शात था । वाणो से उनका कबच छिद गया और शरीर से लाल लौहू की धाराए स्थान से बह निकली । श्रजुन के बाण उनके शरीर को वेध कर दूसरी ओर निकल जाते । तभी एक कौरव चिल्लायाअरे ! पितामह तो अर्जुन के मोह मे स्वयं अपना नाश करेंगे और हमे भी पराजित करादेगे । "
इस चीख पुकार को सुन कर पितामह से न रहा गया वे अर्जुन की गति को रोकने की इच्छा से हाथ मे खडग व ढाल लेकर रथ से उतरने को हुए कि उसी समय श्री कृष्ण ने उस ओर इगित किया और अर्जुन ने मन को दृढ कर के ऐसे तीखे बाणो की मार की कि देखते ही देखते पितामह की ढाल टूटकर गिर गई और वे खडग के लिए रह गए। अब क्या था, अर्जुन ने पितामह को गिराने के लिए और भी वेग से वाण चलाए और थोड़ी सी ही देर मे पितामह का