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जैिन महाभारत
को
युद्ध
के लिए ललकारेंगे और आत्म आहुति देकर भी उस का बध करेंगे | अब आप निश्चित होकर युधिष्ठर को बन्दी बनाने की बात सोचें ।"
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सुशर्मा की बात सुनकर दुर्योधन एक दम उसने आत्म सन्तोष के
उसे पार हर्ष हुआ।
सच ?"
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"हाँ, राजन ! मैं आपकी ओर से युद्ध करने के लिए आया हू, अपने वीर साथियो अथवा अपने प्राणो की रक्षा करने नहीं । मैंने आप दोनो को चिन्ता मग्न देखा और जाकर अपने भाईयो से मंत्रणा की। मुझे प्रसन्नता है कि ऐसे वीर शूरो की एक टोली मैंने तैयार कर ली है, जो आपकी श्राज्ञा मिलते ही सशप्तक-व्रत की - दीक्षा ग्रहण कर लेगी ।" सुशर्मा ने उल्लास पूर्वक कहा । उसे बहुत सन्तोष था कि वह दुर्योधन के प्रति अपनी वफादारी को सिद्ध कर पा रहा है। बल्कि वह ऐसे कार्य को सम्पन्न कर रहा है, जिसे पूर्ण करने के लिए कोई मिला ही नही ।
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द्रोणाचार्य को कोई प्रसन्नता हुई या नही यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे उसी प्रकार शात वठे रहे, अपनी ओर से कुछ कहना आवश्यक जानकर वे बोले "भिगतं नरेश ! अपनी तुम उस सैनिक टोली को संशप्तक-व्रत की दीक्षा दिलाओ। मरणसन्न पर पड़ लोगों के लिए जो दान-पुण्य आदि आवश्यक समझे जाते हैं, वे सभी सम्पन्न कराओ । प्रातः उसे टोलो को अपने प्राणो का मोह छोड़ कर अर्जुन के सामने जाना है ।"
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प्रसन्न हो उठा। पूछा - "क्या
लिए
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दुर्योधन को लक्ष्य करके उन्हों ने कहा - "बेटा | रात्रि "बहुत जा चुकी, अब श्राराम करो । कल फिर मैं अपने वचन को पूर्ण करने का भागीरथ प्रयत्न करूगा ।
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ज्यो ही पूर्व क्षितिज को मांग सिन्दूरी हुई। एक भारी सेना ने संशप्तक-व्रत की दीक्षा ली । सब ने घास के बने वस्त्र धारण - किए। जिन भापित धर्म के अनुसार उन्होने प्रभु वन्दना की और फिर सामारिक मोह तथा परिग्रह आदि का त्याग करके, सभी से