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वारहवां दिन
क्षमा याचना करने के उपरन्ति शपथ ली कि हम लोग युद्ध में धनजय'का बध किर बिना नही लौटेगे। यदि भय के कारण पीठ दिखाकर भाग आये तो हमें महापाप का दोष प्राप्त हो। हम प्राणों तक का उत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहेगे ।
शपथ लेने के पश्चात् वे संशप्तको ने दान-पुण्य किए। अपने गुरुप्रो, बन्धु बाधवो को अन्तिम प्रणाम किया और अस्त्र शस्त्र सम्भाल कर तैयार हो गए।
दोनो ओर की सेनाए सज गई। रण क्षेत्र में जाने से पूर्व दोनो ओर के सैनिक एक दूसरे से बन्धुओं की भाति मिलते जुलते थे, घायलो की खबर लेते थे। इसी प्रकार दोनो ओर के वीर परस्पर मिले और जब युद्ध का समय हो गया, सेनापतियो ने रण क्षत्र की ओर जाने के लिए अपना शख बजाया, दोनो भोर के सैनिक अपनी अपनी सेना मे आकर अपने अपने स्थान पर खडे हो गए। सेनापतियो ने उस दिन के युद्ध के लिए अवश्यक सूचनाएं तथा हिदायतें दी और फिर दोनो सनाए रण क्षत्र की ओर चल दी। . • सूर्य एक बास ऊपर चढ़ चका था, दोनो ओर से व्यूह रचना हो चुकी थी। तभी कौरवो की ओर से भिगर्तराज की सशप्तको को टोली ने पुकार पुकार कर अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा। इस टोली को प्रात्मघाती सैनिक टोली भी कहा जा सकता है। इस प्रकार की सैनिक टोलियो का आजकल भी रिवाज है। कि सेना की काई विशेष टुकडी किसी मुख्य कार्य को पूर्ण करने की शपथ लेकर जाती है और कार्य पूर्ण किए बिना नहीं लौटती।
इसी प्रकार की थी वह भी भिगर्त देश की सेना, जिसकी ललकार को सुनकर अर्जन तडप गया। उन दिनो क्षत्रियो मे यह प्रथा थी कि यदि रण क्षेत्र मे किसी विशेष व्यक्ति को युद्ध की पुनाता दी जाती है तो वह विना किसी का वहाना किए ही युद्ध
न क लिए प्रा डटता । उसी रीति के अनुसार जब अजन ने एक वशेष सैन्य-दल को, जो सशप्तको के वेश में था, युद्ध की चुनौती इत हुए देखा. तो युधिष्टिर के पास जाकर बोला-"राजन् । देखिए १ लोग सशप्तक व्रत लेकर मुझे ललकार रहे हैं। आप तो जानते ही है कि मेरी प्रतिज्ञा है कि यदि कोई मुझे, यद्ध के लिए ललकारेगा