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जैन महाभारत
तो मैं उस से युद्ध अवश्य करूगा। वह देखिये, सुशर्मा और उसके साथी आज मुझे ही युद्ध की चुनौती दे रहे हैं। इसलिए मै तो जा रहा हूं और उनका विनाश 'करके ही लौटूंगा। आप मुझे इसकी प्राज्ञा दीजिए।"
. युधिष्ठिर ने सारी परिस्थिति पर विचार किया और बोले"बडी विकट समस्या आ गई है। मेरी प्राज्ञा की बात जाने दो। तुम्हें दुर्योधन का इरादा मालूम ही है। द्रोणाचार्य का वचन भी • ज्ञात है और यह भी जानते हो कि द्रोणाचार्य बड़े बली हैं, शूर हैं। कृष्ट-सहिष्ण, शस्त्र विद्या मे पारंगत, बुद्धिमान और पराक्रमी है
और अपने वचन को पूर्ति के लिए हर सम्भव उपाय अपना सकते । हैं। उनके प्रण और उनकी सामर्थ्य को ध्यान में रखते हुए तथा .. शत्र की चाल को समझ कर अपनी मर्यादा का ध्यान रखकर जो - तुम उचित समझते हो करो." - .
अर्जन भी सोच में पड़ गया, तभी भिगतं देश के वीरो ने ललकारा-"अर्जुन | कहां छप गया है। यदि वह जीवित है तो पाये और हम से लोहा ले हम या तो उसका बध कर देंगे अथवा - अपने प्राणो का उत्सर्ग कर देंगे। अन्य किसी दशा मे नही लौटगे।" अर्जुन यह सुनकर उद्विग्न हो गया। बोला-"राजन् ! वह देह फिर शत्रयो ने मुझे ललकारा।, मुझे जाना ही होगा। आपकी रक्ष पांचाल राज पुत्र सत्याजित करेगे। जब तक वे जीवित रहेगे तव तक आप पर किसी प्रकार का सकट नही आ सकता।" .
__ सत्यजित को बुलाकर अर्जुन ने कहा- मैं अपने महाराज को तुम्हे सौंपता हूँ। मेरी ही तरह उनकी रक्षा करना और शत्रु तुम्हारे शव पर ही उतरकर हम तक जा सके। बस यही में चाहता हूं।"
सत्यजित ने विश्वास दिलाया कि प्राणो की आहुति देकर भी वह युधिष्ठर की रक्षा करेगा।
और अर्जुन सशप्तको की ओर ऐसे लपका जैसे भूखा शेर शिकार पर ल-कता है। श्री कृष्ण अर्जन से कह रहे थे-"धनजय। यह सब तम्हारे ही वाणों की प्रतीक्षा मे खडे हैं । प्राणों के भय , कारण तो उन्हे रोना चाहिए था, पर व्रत के नशे में यह वड उत्साह नधा उल्लास के साथ खडे है। सनिक इन्हें अपना रण काशल