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________________ ४६ जैन महाभारत कर बोले-'पापी! देख क्या यह भी मेरी ही माया है। ये तेरा शस्त्र ही मेरे काम आ रहा है। तू बूढा है, जा कुछ दिनों और। ससार में रहना चाहे तो भाग जा, वरना तेरा ही अस्त्र तेरे. प्राण लेगा?" जरासिन्ध पर तो शक्ति का अहकार सवार था, उस ने अकड कर कहा-'ग्वाले! पहले इस चक्र का प्रयोग सीखने के लिए मेरा शिष्य बनता तब इसे प्रयोग करने की बात करता तो कदाचित तेरी धमकी का मुझ पर कुछ प्रभाव भी पडता अब क्या है, तेरे लिए तो यह एक खिलौना ही है।" तो फिर देख इस खिलौने की करामात ! इतना कह कर श्री कृष्ण ने चक्र रत्न उस की ओर घुमा कर मारा, जिस से देखते ही देखते जरासिन्ध. का शीश कट कर धरा पर आ गिरा और वह चौथे नरक मे-चला गयो। आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी। श्री कृष्ण की जय के नारो से युद्ध स्थल गूज उठा । जरासिन्ध की सेनाओ ने शस्त्र डाल दिए और रण भूमि उत्सव स्थल मे परि णत हो गई। यादव संनिक आनन्द चित हो कर विपुल वाद करने लगे। जरासिन्ध का बध होते ही नेमिनाथ जी ने तुरन्त जा कर जरासिन्ध के बन्दी ग्रहो मे बन्दी बने पड़े राजाम्रो को बन्धन मुक्त किया। जब जीवयश को पिता की मृत्यु का समाचार मिला तो वह वहुत दुखी हुई और अग्नि में कूद कर खाक हो गई। श्री कृष्ण ने मगध देश का चौथाई भाग जरासिन्ध के शेष रहे पुत्र को, दे दिया। उन्होने मृत यादवो के शवो का दाह संस्कार किया और तीन खण्डो की दिग्विजय करने चल पडे। जिसे आठ वर्ष मे पूर्ण किया और तीन खंड में अखड आन मानवाकर त्रिखडीश्वर हो कर वाद्यसमूहों के साथ महामहोत्सव पूर्वक अलका सदृश द्वारिका नगरी मे प्रवेश किया।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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