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जैन महाभारत
राज्याभिषेक के उपरान्त युधिप्टिर को आशीर्वाद देते हुए धृतराष्ट्र ने समझाया-पुत्र युधिष्ठर, भैया पाडु ने इस राज्य को अपने बाहुवल से बहुत विस्तृत किया था और वश के गौरव को चार चाद लगाये थे। मेरी कामना है तुम भी अपने पिता के समान ही यशस्वी गौरव शाली, सुखी और कुलध्वज बनो। तुम्हारे पिता पाडु ने मेरे कथन को कभी अन्यथा नही किया। गुरु के विनीत शिष्य के समान सदा सर्वदा मुझे वहुमान देते रहे। तुम भी अपने पिता की यशस्वी सन्तान हो। मुझे तुम से भी ऐसी ही आशा है मेरे बेटे दुरात्मा हैं। एक स्थान पर ही रहने से सम्भव है परस्पर मे वैमनस्य वढे। इसलिए मेरी तुम्हे यही सम्मति है कि तुम खांडवप्रस्थ को अपनी राजधानी बना लो और वही से राज्य सचालन करो। इससे तुम मे और दुर्योधनादि के मध्य शत्रुता की सभावनाएं ही समाप्त हो जायेगी।
खाडवप्रस्थ वही नगरी है जो पुरु, नहुष, ययाति और हमारे प्रतापी पूर्वजो की राजधानी रही है। उसके उद्धार से पूर्वजों की राजधानी के वसाने का यश भी तुम्हें प्राप्त होगा।
धृतराष्ट्र के मृदु वचनो को मान कर पाडवो ने खाडवप्रस्थ के भग्नावशेषो पर, जोकी उस समय तक निर्जन वन ही बन चुका था, निपुण शिल्पकारो से एक नये नगर का निर्माण कराया। सुन्दर २ भवनो अभेद्य दुर्गों आदि से सुशोभित उस नगर का नाम इन्द्रप्रस्थ रक्खा गया। इस नई राजधानी में, जिसकी उन दिनों भारत में प्रगसा हो रही थी, माता कुन्ती और सती द्रोपदी सहित पाडव सुख पूर्वक राज करने लगे। तेईस वर्ष पर्यन्त दिन दूना रात चौगुना आनन्द मगल छाया रहा। इस बीच में भीम सेन अर्जुन नकुल सहदेव चारों भाईयो ने युधिष्ठर की छत्र छाया मे अपने राज्य की सीमाए विस्तृत करी, अन्य अनेक प्रदेश अपने राज्यान्तर्गत कर वहा न्यायनीति का, ऋद्धि समृद्धि का साम्राज्य स्थापित किया ।
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