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दुर्योधन का कुचक्र
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बध न करके जीवित पकड लेने के पक्ष मे हो गए तो युधिष्ठिर धन्य है, जिसका कोई शत्रू नही। आज मुझे तुम्हारा प्रस्ताव सुन कर बही ही प्रसन्नता हुई "
द्राणाचार्य की बाते सुन कर दुयौवन और उसके साथियो के मुह पर जो भाव आये थे, यदि उस समय प्राचार्य की दृष्टि उस ओर होती तो वे चौक जाते पर वे तो कुछ सोचने लगे थे। नीची दृष्टि किए सोचते रहे और अन्त मे गरदन उठा कर बोले-"बेटा ! मैंने जान लिया कि युधिष्ठिर को जीवित पकडवाने से तुम्हारा क्या उद्देश्य है। तुम्हारा यही उद्देश्य तो है कि युधिष्ठिर को बन्दी बना कर पाण्डवो पर अपनी विजय की धाक जमा दे और फिर युधिष्ठिर से सन्धि करके, उन्हे छोड दे। युद्ध समाप्त हो जाये और बात भी रह जाये। इसके अतिरिक्त और क्या उद्देश्य हो सकता है युधिष्ठिर को पकडने का" ।
यह कहते कहते द्रोणाचार्य की प्राखो से प्रसन्नता व प्रफुलता उबलने लगी, वे गद गद हो उठे और सोचने लगे-"बुद्धिमान धर्म पुत्र का जन्म सफल है. कुन्ती नन्दन बड़े भाग्य शाली है, जिण्हो ने अपने शील स्वभाव से शत्रु तक को प्रभावित कर दिया है।"
वे बार बार यही सोचते और धार्मिक जीवन की विजय पर असीम सन्तोष तथा प्रसन्नता अनुभब करने लगे। फिर यह सोच कर कि अपने भ्राताओ के प्रति दुर्योधन के मन मे कुछ प्रेम तो है ही, भ्रातृ स्नेह ने जोर तो मारा ही, उन्हे वडी ही प्रसन्नता हुई। उन का मन खिल उठा। . "तम धन्य हो दुर्योधन । तमने अपने भाईयो के लिए जो कुछ सोचा वह तुम्हारी महानता का प्रतीक है "- द्रोण बोले ।
दुर्योधन बडी कठिनाई से अपने को नियन्त्रित कर पा रहा था, फिर भी अवसर को देख कर उसने अपने को काबू मे रक्खा, परन्तु अन्तिम बात तो उसके कलेजे मे छुरी की भाति चुभ गई। वह अपनी आवाज को सयत करते हए, परन्तु आवेश मे आकर वाला--"प्राचार्य जी! आप को तो न जाने क्या हो जाता है, कभी कभी पाण्डवो की आवश्यकता से अधिक प्रशसा करके उन्हे पृथ्वी से उठा कर आकाश पर रख देते हैं। मैं युद्ध जीतने के लिए उपाय कर रहा है और आप समझ रहे हैं कि मैं युधिष्ठिर के उच्चादर्श के