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जैन महाभारत
" किसी भी उपाय से आप युधिष्ठिर को जीवित ही कैद कर के हमे सौंप दें तो बहुत ही अच्छा हो । इस भयंकर युद्ध की अन्तेष्टि हो जाये इस से अधिक हम आप से कुछ अधिक नही चाहते ।" - दुर्योधन ने कहा ।
कर्ण स्वर मे स्वर मिला कर तुरन्त बोल पडा - "इम् कार्य को आप यदि सफलता पूर्वक पूरा करदे तो फिर काम बन जाये गा और महाराज दुर्योधन, मैं और हम सभी उनके साथी सन्तुष्ट हो जाये गे और मैं यह जानता हू कि यह काम आप के लिए कठिन नही है ।
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कर्ण की बात समाप्त होते ही दुःशासन ने कहना आरम्भ कर दिया- 'आप की बात पर हम सभी विचार कर ही रहे थे कि तभा हमे शीघ्र ही युद्ध समाप्त कर देने के लिए यह उपाय सुझा है । बस ग्राप इकार न करें 1 इस काम को तो कर ही डालें । यही हमारी विजय है, जिसका श्रेय आप को हो प्राप्त होगा। बल्कि जो काम पितामह न कर पाये. वह आप के हाथो पूर्ण हो जायेगा ।" आचार्य ने तोनो की बाते सुन कर एक दृष्टि उन के मुख पर डाली और इस विनती का रहस्य उन्होने अपने अपने विचारो के अनुरूप समझा वे युद्ध मे तो अवश्य हो पाण्डु पुत्रो का मारने के पक्ष में नही थे वल्कि मन ही मन यह सघर्ष चल रहा था कि धर्मराज युधिष्ठिर को मारना धर्म तो नहीं है । वे अर्जुन को अपने वेटे से भी अधिक प्यार करते थे, जब उसे अपने विरुद्ध रण मे लडते देखने तो उन का मन चीत्कार कर उठता। वे नही चाहते थे कि इतने भले व यशस्वी पाण्डवो का वध उनके हाथों हो । अतः दुर्योधन के प्रस्ताव से वे बड़े प्रसन्न हुए ।
शरीक हो गए थे, पर
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बोले - ' दुर्योधन । क्या तुम्ह री यही इच्छा है कि युविष्ठिर के प्राणो को रक्षा हो जाये ? तुम्हारा कन्याण हो । वास्तव में युधिष्ठिर धर्मराज है. उसका वध होना ठीक है भी नही। और जब तुम ही ने यह समझ लिया कि धर्मराज युधिष्ठिर के प्राण न लिये जाये तो फिर युधिष्ठिर वास्तव मे प्रजात शत्रु है । लोगों ने 'शत्रु रहित' की जो उसे उपाधि दी है वह ग्राज सार्थक हुई प्रसन्नता की बात है कि तुम्हीं ने उसको सार्थक किया। जब तुम ही उसे