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________________ जैन महाभारत परन्तु मैं अर्जुन का वध करने का निश्चय कर चुका हू । हा, तुम मेरी मा हो, श्राज पहली बार तुम मुझ से कुछ मना रही हो । तुम्हे मै निराश नहीं करूंगा । वचन देता हू कि अर्जुन के अतिरिक्त अन्य किसी अपने भाई को मैं न मारूंगा ।" "तो क्या अर्जुन के प्राणो को तुम न बख्शोगे ?" "नही " "यदि मैं इस का दान मांगू तो.........?” ३३४ "तुम याचक बनकर नही मा बनकर आई हो ।" "तुम मा की आज्ञा का उल्लघन करोगे ? " "क्षत्रिय धर्म को कलकित करने वाला आदेश कोई भी हो, किसी का भी हो मैं नही मानूंगा ।" इस प्रकार कितनी ही बार घुमा फिरा कर कुन्नी ने चाहा कि कर्ण अर्जुन को भी न मारने का वचन दे दे पर कर्ण न माना । कर्ण ने अन्त मे कहा - "मा मुझ क्षमा करना कि मैं पाण्डवों के विरुद्ध लड़ने और अर्जुन के प्राण लेने के अपने व्रत को तुम्हारी इच्छा के बाद भी नही तोड पा रहा। क्योकि मैने तुम्हारी कोम से जन्म लिया है । हम क्षत्रिय अपने धर्म को किसी दशा मे नही छोडने । मुझे ग्राशीर्वाद दो कि में धर्म पर अडिग रहू ।" कुन्ती ने कर्ण को अपने गले से लगा लिया। उस से कुछ न बोला गया, गला रुव गया और आंखो से प्रांसुश्री की धारा बह चली। उस ने कुछ देर बाद सम्भल कर कहा- बेटा तुम्हारा कल्याण हो । तुम्हारे यश में वृद्धि हो ।" कर्ण को इस प्रकार ग्राशीर्वाद देकर कुन्ती वापिस चली आई | वर्ण अपने जीवन और परिस्थितियों की विडम्बना पर मोचता रह गया |
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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