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________________ ११०२२ जैनः महाभारत, वे पुरोचन से, ऐसे हिलहिलकर व्यवहार करते- जैसे. उस पर कोई सन्देह ही, नही है; वल्कि वह उनका अपना व्यक्ति है। सदाहसते-खेलते रहते। उनके व्यवहार को देख कर किसी का तनिक ... ! सा भो सन्देह नहीं हो सकता था कि उन के मन मे किसी प्रकार . की शका, अथवा चिन्ता है । . . . . ., उधर पुरोचन भी. कोई शीघ्रता नही करना चाहता था उस ने सोचा, कि ऐसे अवसर पर, इस ढग से भवन को आग लगाई जाये कि कोई उसे दोपी न ठहरा सके।' 'दोनों ही पक्ष अपने अपने दाव खेल रहे थे। इसी प्रकार दिन बीतते रहे। एक दिन पुगेचन ने सोचा कि अब.पाण्डवों का काम तमाम करने का समय आगया, पाण्डवो, को मुझ पर पूर्ण विश्वास है। महल को बने महीने बीत गए। इस समय आग लगाने पर. कोई भला .क्या सन्देह कर सकेगा? .बुद्धिमान युधिष्ठिर उस के रग ढग से ताड गए कि वह अब क्या सोच रहा है। उन्होने अपने भाइयो से कहा -पुरोचन ने अब हमें जलाकर मार डालने का निश्चय कर लिया मालूम होता है। यही समय है कि हमे भी अव यहा से भाग नि । लना चाहिए." .. • युधिष्ठिर के परामर्श से द्रौपदी ने उस रात को एक बडे भोज का प्रबन्ध किया। नगर के सभी लोगो को भोजन कराया गया। बडी. धूम धाम रही मानो कोई उत्सव हो। खूब खा पी कर. भवन के सभी कर्मचारी सो गए। पुरोचन ने भी छक कर खाया था वह भी गैय्या पर पड़ते ही खरीटे भरने लगा। , आधी रात के समय भीम सेन ने भवन में कई जगह आग लगादी और फिर पाचो भाई सती द्रौपदी के साथ सुरग के रास्ते अधेरे मे रास्ता टटोलते हुए बाहर निकल आये। ' वे भवन से । बाहर निकले ही थे कि अग्नि ने सारे भवन को अपनी 'लपेट मे ले । लिया। पुरोचन के रहने के मकान मे भी आग लग गई। ...' ., । “चाग की लपटे आकाश की ओर उठ रही थी,, ऐसा मालूम होता था कि आकाश को छूलेगी। लपटो का: प्रकाश, सारे नगर
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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