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बाजी
भीष्म पितामह इस दशा को देख कर क्षुब्ध हो गए थे, कहने लगे - " आज क्या होने वाला है ? कुछ पता नही । मुझे तो ऐसा लगता है कि शकुनि के हाथ मे पासा नहीं, बल्कि नगी तलवार है, और उससे वह निर्भय व स्वच्छन्द हो कर कुल मर्यादा, धर्म, नीति और वग की प्रतिष्ठा का वध कर रहा है ।"
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धृतराष्ट्र को भी विवश हो कर कहना पड़ा - " दुर्योधन ! बस बस बहुत हो चुका । मैं सुन रहा हू कि प्रत्येक व्यक्ति तुझे धिक्कार रहा है । अब यह महानाशक खेल बन्द कर दे ।"
"पिता जी । आप शांत बैठे रहिए, युधिष्ठिर को आज जी भर कर खेल लेने दीजिए ।” – दुर्योधन बोला । " कहिए, अब क्या लगाते हैं, खेलते है या भाग्य को रोते हैं ? शकुनि ने युधिष्ठिर को ताना देते हुए कहा ।
युधिष्ठिर बोले - "क्यों गर्व करते हो, अब की बार न सही, इस बार तकदीर का पासा पलटेगा । यह जो मेरा भाई सहदेव है जो सारी विद्याओ मे निपुण है, विख्यात पण्डित की बाजी लगाना उचित तो नही, फिर भी लगाता हू । चलो देखा जायेगा ।”
शकुनि ने पासे को हाथ मे लिया और उत्साह से कहा -
निश्चित हो कर खेलिये भाग्य हो जब कि साथ | पाँसा शकुनि हाथ है, तो जीत भी अपने हाथ ||
यह चला और वह जीता - कहते हुए पासा फेंक दिया और प्रासा गिरते ही प्रफुल्लित हो कर उछल पडा । बोला - "देखिये बाज़ी तो स्पष्टतया हमारी है, कहिए अब किस की बारी है ।"
युधिष्ठिर चिन्ता मग्न हो गए, तव शकुनि ने इस आशंका से कि कही युधिष्ठिर खेल न बन्द करदे, कहा “कदाचित भीम और अर्जुन आप की दृष्टि में, नकुल और सहदेव से अधिक मूल्य - वान है ? हा, हो भी क्यों न वे माद्री के बेटे थोड़े ही हैं । सो उन्हे तो आप वाज़ी पर लगाने से रहे ।”