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________________ तीसवां परिच्छेद +31px ne हे कृष्णोपदेश शांति और दोनो ओर की समझौते की सेनाए रण हो चुकी थी । भारत के दुर्भाग्य ने प्रगडाई ली। वार्ताएं सफल हो चुकी थी और ग्रव स्थल में जा पहुची थी । दोनो ओर से व्यूह रचना कौरवो की छाती अभिमान के मारे फूल रही थी। उन्हे कुरुक्षेत्र में सजी खड़ी सेना को देख देख कर अपने पर गर्व हो रहा था और बाट देख रहे थे उस समय की जब कि दोनो सेनाओ की भिड़न्त होगी और वे अपनी विशाल सेना के बल पर पाण्डवो को परास्त कर के अपनी विजय पताका फहरा देंगें और "न रहेगा वास न बजेगी वासुरी" की लोकोक्ति अनुसार राज्य के लिये झगडने वालो को समाप्त कर सदैव के लिए निश्चित होकर राज्य करने का अवसर प्राप्त कर लेंगे । पर कौरवों का यह स्वप्न कोरी कल्पना पर श्राधारित है, अथवा इस में कोई सच्चाई भी है इस का पता तो युद्ध की समाप्ति पर चलेगा । हा ! दुर्योधन की प्रांखे चमक रही हैं। दुःशासन ने मुख पर उल्लास है, और अन्य भ्राताओ की भुजाए फड़क रही हैं। इस समय कोई उनकी दशा देखे तो कदाचित उसे यह विश्वाम करने देर न लगे कि कौरवों को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास है । - परन्तु वह समय आयेगा या नहीं, जिसकी कल्पना उन्होने की है, यह बात भविष्य के गर्भ में छुपी है। अभी तो कोरवों की
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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