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सेनापतियो की नियुक्ति
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के व्रत से तुम चिन्तित क्यो होते हो। यदि वह मेरे रहते रण मे भाग नही लेगा तो मै सेनापतित्व स्वीकार करता है। पर यह साफ बताए देता है कि पाण्डु पुत्रो का बध करने की इच्छा से मै आगे वढकर युद्ध न करूगा। मै जानबूझ कर उनका वध नही करूगा । पर लड़ गा पूर्ण शक्ति से।"
बेचारे दुर्योधन के पास अब क्या चारा था? कोई दूसरा उपाय भी तो नही था। उसने पितामह की बात मन से स्वीकार कर ली और विधिवत उनका अभिषेक कर दिया गया. पितामह के नायकत्व' मे कौरव सेना सागर की भाति लहरे मारती हुई कुरुक्षेत्र की ओर प्रवा हत हुई। ।
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