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*बाईसवां परिच्छेद * , ...
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परामर्श
Xxxxxxxx अज्ञात वास की अवधि पूर्ण हो चुकने के कारण पाचो पाण्डर द्रौपदी सहित प्रकट रूप में रहने लगे। एक दिन युधिष्ठिर ने अपर सभी भ्राताओ को अपने पास बुलाकर कहाः
हमारी प्रतिज्ञा कभी की पूर्ण हो चुकी। शर्त के अनुसार अब हमे हमारा राज्य मिल जाना चाहिए। परन्तु लक्षण वता रहे हैं कि दुर्योधन सीधी तरह से हमे राज्य वापिस नही देने वाला। उसने हम से १३ वर्ष तक बनवास व अज्ञात वास करवा लिया, पर अव भी उसकी इच्छा हमे राज्य हीन रखने की 'ही है। ऐसी दशा मे अव हमे सोचना है कि क्या करे ? श्राप सभी विचार कर कि भावी कार्यक्रम क्या हो ?"
अर्जुन ने कहा-"धर्मराज ! हम तो सदा आप के आज्ञाकारी रहे हैं। पूज्य पिता जी के उपरान्त आप ही हमारे सरक्षक है। आप ने जुआ खेला, हम चुप रहे। आप ने राज्य हार दिया, हम कुछ न वोले। द्रौपदी का अपमान हुआ हम खून का घूट पी कर रह गए। आप ने वनवास और अज्ञात वास की शर्त माना हम ने उसे स्वीकार कर लिया। जो जो विपदाएं हम पर अ.इ, हम ने सहर्ष सहन किया। और अब भी आप ही की इच्छा के दास हैं। हम तो पहले ही अनुभव करते थे कि १२ वर्ष का बनवास तथा एक वर्ष का अज्ञात वास तो दुष्ट दुर्योधन का एक बहाना है ।