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________________ जयद्रथ वध ---- "ठीक है द्रपद कुमार ! तुम तुरन्त जायो - युधिष्ठर बोलेअपने माथे कुशल वीरो को लेते जाओ। सात्यकि कमजोर पड़ रहा है, कही अवसर पाकर द्रोणाचार्य उसका बध करने मे सफल हो गए, तो हमे 'भयकर' क्षति होगी । जाओ, देरि न करो। " + 1 ५६३ 4 एक बडी सेना को लेकर घृष्टद्युम्न तुरन्त उस ओर चल पंडा । बड़ी कठिनाई से उसने, सात्यकि को द्रोण के फन्दे से बचाया । *7 X x 'X 1 ?" दूर से श्री कृष्ण के पांच जन्य की आवाज सुनाई दे रही थी । युधिष्ठिर के कान उसी ओर थे । सात्यकि को सम्बोधित करते हुए वह अपनी चिन्ता प्रगर करते हुए बोले- "सात्यकि ' ' मुना तुमने । अकेले पाच जन्य 'की' ही आवाज श्रा रही है, गाण्डीव धनुष की टकार सुनाई नहीं देती " अर्जुन को कही कुछ हो तो नही गया सात्यकि ने ध्यान से सुना और बोला - " बात तो आपकी ठीक है पर पाच जन्य भी तो ग्रेजुन के लिए ही बज रहा होगा । अजुन के प्रहारो से शत्रु मर रहे होगे तभी तो श्री कृष्ण राख बजाते होगे । यदि जुन को कुछ हो जाता। तो पाच जन्य ही क्यो सुनाई देता ?" 1 1 り ܀ + + "नही सात्यकि, सम्भव है श्री कृष्ण ही उस दगा मे स्वय लढने लग गए हो । जान पडता है अर्जुन सकट मे पड़ गया है । आगे सिन्धु राज की सेना है, पीछे द्रोण की । अर्जुन सुबह से व्यूह मे घुसा है और अब शाम होने को आई, अभी तक उसका पता नही चला ! जरूर दाल मे कुछ काला है ।" - युधिष्ठिर चिन्ता व्यक्त करते हुए बोले । C 15 "नही धर्मराज | आप व्यर्थ ही चिन्तित हो गए । अर्जुन को कोई परस्त कर सके, असम्भव है।” सात्यकि ने दृढता पूर्वक कहा । "वह देखो फिर पाच जन्य की ही ध्वनि सुनाई दी - युधिष्ठिर फिर चिन्तातुर होकर बोले- गाण्डीव की टकार सुनाई ही नही देती । सात्यकि । तुम श्रर्जुन के मित्र हो । वह तुम से बड़ा स्नेह रखता है । वह तुम्हारी वडी प्रशसा किया करता । जब हम वनवास में थे तो कितनी ही बार अर्जुन को मैंने कहते सुना कि सात्यकि
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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