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जन महाभारत
. .... उत्तर मे द्रोण वृद्ध सिंह की भाँति गरजते। दोनो के धनुषो की टकार, वड जोरों से सुनाई दे रही थी। उनके पास पास युद्ध रत सभी सैनिक रुक गए थे। मृदग, शख आदि की ध्वनिया मौन हो गई। आकाश मे देवता, विद्याधर-गधर्व, यक्ष प्रादि इन दोनो के युद्ध को विस्मय पूर्वक देख रहे थे। । ___- द्रोण का धनुप सात्यकि के वाण से टूट गया, तो उन्होने दूसरा धनुष सम्भाला पर उसकी डोरी चढा हो रहे थे कि वह भो सात्यकि ने तोड डाला । द्रोण ने तीसरा धनुष उठाया, कुछ हो देरि मे वह भी टूट गया । इस प्रकार द्रोण के पूरे एक सौ धनुष सात्यिक ने तोड डाले । द्रोण उसके पराक्रम को देखकर मन ही मन कहने, लगे- 'मात्यकि तो धुरन्धर रामचन्द्र, कार्तिकेय,भीष्म और धनजय प्रादि कुशल योद्धाओ की टक्कर का वीर है।"
सात्यकि ने और भी कुशलता का परिचय दिया। द्रोण जिस अस्त्र का प्रयोग करते, सात्यकि भी उसी अस्त्र का उसी प्रकार प्रयोग करता । द्रोण तग पागए। तो उन्होने सात्यकि के वध का इच्छा से आग्नेयास्त्र चलाया । आग की लपटे बखेरता आग्नेयास्त्र चला। तभी सात्यकि ने वरुणास्त्र चलाया, जो पानी बरसाता हुआ चला और उस ने वोच ही मे प्राग्नेयास्त्र को ठण्डा कर दिया । इस प्रकार बहुत देरि तक भयकर अस्त्रो का प्रयाग होता रहा परन्तु' सात्यकि ने किसी से भी हार न मानी वह डटा ही रहा और प्रत्येक अस्त्र की काट करता रहा । द्रोणाचार्य यह देखकर वडे क्रुध हुए, . तब उन्होने एक दिव्यास्त्र छोडा, जिसे सात्यकि न काट पाया, तो भी उसने अपने को बचा लिया पर नभी से वह कुछ कमजोर पडने लगा। यह देख कौरव-सेना मे हर्ष की लहर दौड़ गई।
तभी युधिष्ठिर को पता चला कि सात्यकि पर सकट आया हुआ है, उन्होने अपने आस-पास के वीरो से कहा- "कुशल योद्धा नरोत्तम और सच्चे बीर सात्यकि द्रोण के बाणो से बहुत ही पीड़ित ।। हो रहे हैं । चलो, हम लोग उधर चल कर उस वीर पुरुष की .. सहायता करे।" -- .
धृष्टद्युम्न ने युधिष्टिर को रोकते हए कहा-"धर्मराज । श्राप का वहा जाना ठोक नही है। मुझे आज्ञा दो जिए कि सात्यकि की सहायता करू ।