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जरासन्ध वध
है कि जो वीर " कोटि शिला" को उठाता है वही प्रतिवासुदेव को समाप्त कर वासुदेव पदेवी प्राप्त करता है । समस्त सभा में ठीके है, ठीक, की ध्वनि गूजने के साथ ही मुस्कराते हुए श्रीकृष्ण जी उठे और प्रमुख यादव वीरो के साथ गरुड विमान मे बैठ कोटि शिलास्थल पर पहुचे । जहां पर वर्तमान प्रपसर्पिणी काल मे तब तक अपने अपने समय मे ग्राठ वार उन महापुरुषो ने पदार्पण किया था जिन्हों को ससार को "वासुदेव" होने का परिचय देना आवश्यक हो गया था । अन्तिम नारायण श्री कृष्ण जी ने एकाग्र - चित्त से परमेष्ठी स्मरण किया और मिद्ध भगवान की जय का घोप गुजायमान करते ही उस पर्वताकार " कोटिशिला " को उठा कर अपनी अद्भुत शक्ति का परिचय दिया । उसी समय ग्राकाश से पुष्पवर्षा होने लगी । दुन्दुभिनाद के साथ " चरम वासुदेव श्रीकृष्ण महाराज की जय" से समस्त पर्वत गुजायमान हो गया। तभी से श्रीकृष्ण जी का ग्रपर नाम " गिरिधर" हुआ ! यादव वीरो के हर्ष का ठिकाना न था । जय जयकार करते हुए विमान से तत्क्षण द्वारिका मे पहुचे और वलराम जी ने समस्त वृतान्त उपस्थित यादव सभा को सुनाया। जिस मे द्वारिका भर मे एक नवीन दृश्य उपस्थित हुया | मुहल्लों २ गलि २ घर २ " वासुदेव श्रीकृष्ण की जय" के नारो से गूजने लगा । समस्त वीरो की धर्मनिति युद्ध मे विजय प्राप्ति की लहर दौड़ रही थी । चौगुने जोश से सभी योध्दा कार्यरत हुए | पाडवो के पास दूत द्वारा सूचना भेज दी गई। सभी यादवो को तैयार रहने का आदेश दे दिया गया । श्ररिष्ट नेमि जी ने कितनी ही योषधियां जो युद्ध मे आवश्यक थी, ला कर दे दी । समुद्र विजय के समस्त भ्राता सभी के पुत्र, समस्त यादव योद्धा अस्य शंस्त्र ले कर युद्ध के लिए तैयार हो गए।
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महाराज युधिष्ठिर उन दिनो सम्राट पद प्राप्त करने के लिए राजसू यज्ञ करना चाहते थे, इस सम्बन्ध में विचार विमर्श के लिए उन्होंने श्रीकृष्ण को इन्द्रप्रस्थ बुलाया था। उन्होने श्री कृष्णं से कहा - "कुछ लोग मुझे राजसु यज्ञ करने की राय दे रहे है । ग्राप एक ऐसे व्यक्ति हैं जो मुझे प्रसन्न करने के लिए मेरी प्रदानाए नहीं करेंगे, बल्कि मेरे दोषों को मेरे सामने साफ साफ बता देगे । घाम मुह देवी बात नही करेंगे और न किसी स्वार्थ का कोई अनुचित