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________________ पण गात दूत बने ३१५ . "वासुदेव ! सजय को धृतराष्ट्र का-ही प्रति रूप समझना चाहिए। उन से जो बाते हुई उन्ही के कारण मैं इस निष्कर्ष पर पहच रहा हू-युधिष्ठर कहने लगे. पहले तो सजय की मीठी २ तथा धर्मानुकल बाते सुनकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई थी और मुझे ऐसा महसूस होने लगा था- कि सन्धि के लिए उपयुक्त वातावरण बनने की सम्भावना है, पर अन्त मे सजय के मुख से, जो निकला उस से मुझे यह सन्देह हो रहा है कि धृतराष्ट्र चाहते हैं कि यदि दुर्योधन हमे कुछ भी न दे तो भी हम युद्ध न करे बल्कि शाति तथा धर्म के नाम पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। धृतराष्ट्र ने हमारे साथ. हा काण्ड मे जो भूमिका निभाई है उस से स्पष्ट है कि वे मनो बल, के सम्बन्ध मे वहुत ही कमजोर आदमी है। वे अपने बेटे दुर्योधन के मोह मे न्याय को भी तिलाजलि दे सकते है। सजय ने कोई. बात अपने मन की नही कही जो कही वह धृतराष्ट्र की बात थी।, इस लिए मैं तो इस परिणाम पर पहुच.रहा हूं कि दुर्योधन सन्धि के लिए तैयार नही है और न उस के तैयार होने, की प्राशा ही है इस सम्बन्ध मे वृतराष्ट्र भी निराश hth ' .E: "क्या पांच ग्राम की माग होने पर भी दुर्योधन नहीं माने क्या गा?- श्री कृष्ण ने पूछा । . . - "हा, दुष्ट वुद्धि दुर्योधन इस न्यूनतम माग को भी स्वीकार नहीं करेगा, बल्कि सम्भव है कि इस न्यूनतम - माग से उस का अहकार और बढ जाये। इस लिए अब मैं आपका हस्तिना पुर जाना भी उचित नही समझता।"-युधिष्ठिर ने कहा। "राजन् ! हमारा.कर्तव्य है कि शाति तथा सन्धि के लिए अपने अन्तिम प्रयत्न कर ले..ताकि कोई यह न कह सके कि हम युद्ध के जिम्मेदार हैं। यदि हमारे इस प्रयत्न से भी सन्धि वार्ता :: सफल नहीं होती तो फिर रण क्षेत्र में उतरना हमारे लिए न्यायोचित होगा।"-श्री कृष्ण बोले ।. "एक शा मे रे मन अन्दर ही अन्दर कचोट रही है कि
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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