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________________ कर्ण का दान ५११ - - -- है "पाप की आज्ञा हो तो मैं परीक्षा लू।" ! "हा; हां, तुम्हे पूर्ण स्वतन्त्रता है।" इस प्रकार इन्द्र की प्राज्ञा पा कर देवता कर्ण की परीक्षा को चला और उस ने जाते ही चम्पा पुरी पर जो कर्ण की राजधानी थी, मूसलाधार वर्षा करनी प्रारम्भ कर दी । लगातार वर्षा होती रही वह ऐसी वर्षा थी कि चम्पापुरी के इतिहास मे उस वर्षा से पूर्व कभी ऐसी घोर वर्षा का उदाहरण मिलता ही न था। वह घोर वर्पा लगातार सात दिन तक होती रही। नागरिको को रोटी के लाले पड़ गए। क्योंकि लकडियां भीग गई यो । जो कुछ सूखी थी, उन से चार पांच दिन तक रोटिया पकाते रहे। पर फिर तो चल्हे मे आग जलाना असम्भन हो गया। एक दो दिन तो बेचारो ने किसी प्रकार पुजारा किया, पर जब वर्षा ने रुकने का नाम ही न लिया, तो वे चिल विला उछे। अपने बच्चों को रोटी के लिए रोते चहा हा कार करते देख कर उनका हृदय चीत्कार कर उठा। सब लोग लग आ गए और अन्त मे विचश होकर च एकत्रित हो कर कर्ण के पास गए। और जाकर दुहाई मचाई। कर्ण ने उनकी बात सहानुभूति पूर्वक सुनी और उन की विपदा को दूर करने के लिए उस ने अपने भण्डार की सारी लकड़िया नागरिको मे वितरित करदी। . एक दो समय उन से नागिरको ने काम लिया. पर वर्षा तो रकने का नाम ही न लेती थी। वह देवता जो इतनी भयकर वर्मा करा रहा था, सोचने लगा कि परीक्षा का समय तो अब आने वाला है। देखता हूं अब नागरिको को कर्ण क्या देता है। उस ने वर्षों और भी तीघ्र करदी। नागिरक पून. कर्ण के पास गए और दुहाई मचाई । एक ही सवाल था कि- “महाराज लकड़ियां चाहिए । वरना । हमारे बालक भूखों मर जायेमे।" कर्ण ने उनकी बात सुनी और वोला- "प्रजा जन ! घचराम्रो नही। जब तक मेरे पास लकड़ी का एक भी टुकड़ा रहेगा, में देता रहूगा । तुम्हारे चालको को मैं भूखो नही मरने दूगा।" मोर इतना कह कर उस ने धनुष उठाया, चल पड़ा शुद्ध चन्दन से निमित अपने राज प्रसाद को गिराने के लिए। कर्ण का
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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