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________________ ५१२ जैन महाभारत महल बहुत ही विशाल था, जो शुद्ध चन्दन की लकड़ियों से बनाया गयो था उस चन्दन की सुगन्ध ५२ कोस तक जाती थी। चारो ओर बावन कोस तक कर्ण का महल महकता रहता था। करोडो रुपये की लकडी उस मे लगी थी, वर्षों मे वह तैयार हया था पर कर्ण ने अपने बाणो से गिरा दिया और सारे महल की लकडिया नागरिको मे बाट दो। जहा विमाल महल था, वहां उजाड-स्थान रह गया पर कर्ण के मुख पर पश्चाताप अथवा खेद का तनिक सा भाव भी नही आया, बल्कि वह बहुत प्रसन्न था कि उस के द्वार' से याचक खाली वापिस नहीं लौटे। वह सन्तुष्ट था और जिन प्रभुके प्रति बार वार कृतज्ञता प्रगट कर रहा था कि उनकी कृपा से वह अपने नागरिको को विपदा से उबार पाया। यह देख देवता को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह कर्ण के पास पहुचा। उस ने कहा-"धन्य, धन्य दानवीर कर्ण, तुम धन्य हो।" ___"क्या तुम्हे भी कुछ चाहिए। बोलो क्या चाहते हो।" देवता को याचक समझ कर कर्ण ने कहा। "नही राजन् ! मैं तो देवलोक से आपकी परीक्षा के लिए आया था। देवराज इन्द्र ने जो कहा था. वही सत्य निकला । श्राप वास्तव मे महान दानवीर है। मैं आप से बहुत प्रसन्न हू।"-देव ने कहा। फिर कर्ण को उस वर्ग का रहस्य ज्ञात हुआ। देवता द्वारा प्रशसा होने पर भी कर्ण को गर्व न हुआ। उस देवता ने कर्ण से प्रसन्न होकर कबच तथा कुण्डल दिए और बोला कि जब तक तुम्हारे शरीर पर यह रहेगे, तुम्हे कोई भी शत्रु न मार सकेगा। तभी से कर्ण के पास वह कवच और कुण्डल थे। xxxx श्री कृष्ण ने कवच तथा कुण्डल कर्ण से लेने की एक युक्ति सोची। उन्होंने किसी प्रकार दोनो पक्षो को तीन दिन तक युद्ध स्थगित रखने के लिए रजामन्द कर दिया और स्वय तेला धारण करके बैठ गए। तीन दिन तक अखण्ड तपस्या की। जिसके कारण स्वयं देवराज इन्द्र को वासुदेव के पास ग्राना पड़ा। उसने आते ही पूछा- "मधु सूदन ! बतलाईये, कसे याद किया?''
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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