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जैन महाभारत
दुर्योधन ने उसका समर्थन करते हुए कहा-'आश्चर्य की : बात तो यह है कि पितामह और द्रोणाचार्य भी मिलकर एक अर्जुन का वध नहीं कर पाते।"
कर्ण ने अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा-"दुर्योधन । तुम्हे अच्छी लगे या बुरी मुझे तो ऐसा लगता है कि पितामह दिल से लड ही नही रहे। वरना कहा पितामह और कहां अर्जुन । वह तो पितामह के एक प्रहार का शिकार है। मेरा विचार तो यह कि पितामह पहले से ही पाण्डवो से स्नेह रखते हैं । वे है तो तुम्हारे पक्ष मे पर दिल उनका पाण्डवो के पक्ष मे है। तब तुम्हारी विजय हो तो कैसे ?"
___ "लेकिन, पितामह के लडने के तरीके से तो ऐसा नही लगता -शकुनि ने शका प्रकट की।
कणं दृढतापूर्वक बोला-"मामा जी । आप भी कैसी बच्चो जैसी बाते करते है। भला भीष्म अपनी पूर्ण शक्ति से युद्ध करें और । पाण्डव जीवित वच जायें? वे तो महाबली हैं। महान तेजस्वी और वाल ब्रह्मचारी हैं। उनकी शक्ति का डका तो सारे समार में वज रहा है। पर यदि वे हथियार रख दे तो मैं ही पाण्डवो के लिए काफी है। अकेला ही उन दुष्टो को यमलोक न पहुचा दू तो तब कहना।"
दुर्योधन के मन मे आगा का संचार हुआ, उसे कुछ हिम्मत वन्धी। पर पश्चाताप सा करता हया वोला- "कर्ण ! तुम्हार हा गौर्य के बल पर तो मेने युद्ध ठाना है। मुझे विश्वास है कि अन्त समय मे तुम ही काम प्रायोगे । पर पितामह के रहते तुम रण म उतरोगे नही और पितामह ऐसे पीछा छोडेंगे नहीं। कर ती क्या ?"
शकुनि बोला-"यही बात है तो तुम पितामह से साफ से क्यो नहीं कहते ?"
"हां, हां आप को पितामह से साफ साफ बात करनी चाहिए। कर्ण ने शीनता से कहा-उन से कह दो ना कि वे लडते हैं ता मन लगा कर लडं, वरना यदि उन्हे पाण्डवो मे स्नेह है और अपने स्वह के कारण वे लड नही पाने तो अस्य रन्व दें। क्यों व्यर्थ में हमार