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जैन महाभारत
धर्म की सविस्तार व्याख्या की और अन्त मे बोले-मुनि धर्म से मोक्ष और श्रावक धर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । अत. राजन् ! तुम परमोपकारी धर्म का पालन करो। अव तुम्हारी आयु बहुत हो कम रह गई है। इस लिए अव तुम भली प्रकार सावधान हो जाओ, विषयों से अब प्रीति मत करो। मानव जीवन को व्यर्थ मत बनायो। मेरा तो यही मत है कि अव तुम एकक्षण की भी देरी मत करो, विधि पूर्वक धर्म पालन करो इसी मे कल्याण है।
__ मुनि जी के धर्मोपदेश से पाण्डु नप के नेत्र खुले और उसने विषयो की ओर से मन हटा कर धर्म की ओर प्रीति लगाई। माद्री के साथ अपने महल को वापिस गया। महल से जाते समय वह ससाराभिमुख था, पर वापिस आते समय वह आत्माभिमुखी न चुका था। उसने धृतराष्ट्र तथा विदुर को अपने महल मे बुलाया और सारी घटना कह सुनाई। तदुपरान्त अपने निर्णय को उनके सामने रखते हुए कहा-"मैंने अपना पथ खोज लिया है । मेरी आयु के बहुत ही कम दिन शेप रह गये है अव मे इस बहुमूल्य समय को धर्म ध्यान मे व्यतीत करना चाहता हू अत एव राज-काज भार से मुक्त होना चाहता हू।'
धृतराष्ट्र ने सारी बात सुन कर कहा धर्म पथ पर जाने वाले को रोकना कदापि भला नहीं है। यद्यपि हमारे हृदय मे बसा भ्रातृ स्नेह यह पसन्द नहीं करता कि आप हम से अलग हो। पर क्या करें, वैराग्य का अकुर जिस के हृदय मे उत्पन्न होता है उसे कोई भी नहीं रोक सकता।
___ जब पाडु के निर्णय की कुन्ती को सूचना मिली तो वह करुण अन्दन करने लगी। माद्री तो पहले से ही दुखी थी। पर उस की प्रिय रानियों का रुदन भी पाण्डु को विचलित न कर सका। उनने उन्हे सम्बोधित करके शात भाव से कहा---'इस सनार मे यह जीव कभी इस गति ने उस गति मे, और कभी उन गति ने इस गतिमे चक्कर लगाता हुया घूमता रहता है। फिर मुझे किसी ने किसी दिन तो इस संसार को, तुम्हे और राजपाट को छोड़ कर चले ही जाना है, कोई नई बात में नहीं कर रहा।