SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ जैन महाभारत शास्त्रों मे कहा है। कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो । वइस्लो कम्मुणा होइ, सुदो हेबइ कम्मणा ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह सब कर्म से होते है जिसमे शील नहीं, वह ब्राह्मण नही, जिस मे दुर्व्यसन है, वह चाहे कितना ही पढ़ा लिखा हो, ब्राह्मण नही कहला सकता | चारो वेदो को कण्ठस्थ करके भी यदि कोई चरित्र भ्रष्ट हो तो वह 'नीच ही है। फिर चाहे उसने ब्राह्मणं माता पिता से ही जन्म क्यो न लिया हो । प्रश्न-सब से अधिक आश्चर्य की क्या बात है ? . उत्तर-प्रति दिन अपनी आँखो के सामने छोटे बड़े जीवों, वडे बडे वलिकण्ठो, महाराजाओ, विद्वानो आदि को मरते देखकर भी मनुष्य भोग लिप्सा मे अपने मनुष्य जीवन को गवाता है और अपने रुप, रग, शक्ति धिद्या, और ज्ञान पर अहंकार करता है। यही सव से वडा आश्चर्य है । इसी प्रकार भील रूपी देव ने कितने हो प्रश्न किए और धर्मराज युधिष्ठिर ने उनके तकं सगत, धर्माबुमार और शास्त्रा के अनुसार उत्तर दिए। . अन्त मे देव बोला- "राजन । अापकी धर्म बुद्धि से म बहुत प्रसन्न हू। वास्तव मे पाप धन्य है। मैंने सुना था कि पाप धर्मराज है. परन्तु आज मेरे सामने प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित हो गया। फिर भी अभी तक मुझे इस बात पर आश्चर्य है कि आप जैमा व्यक्ति जुए जैसे दुर्व्यसन मे फस गया।" . लज्जित होकर युधिष्ठिर वोले-'आप ठीक कहते है। मैं राजवशी की गति का त्याग न कर पाया, औरं आज अपना उसी एक भूल का इतना भयकर फल भोग रहा है।"
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy