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________________ ५४० जैन महाभारत " इसी प्रकार सभी महाराज युधिष्ठिर को सान्त्वना दे रहे थे। पर-युधिष्ठिर वार-बार अपने मन को समझाते, पर हृदय मे उठ रहे शोक के तूफान को वे रोक न पाते। . - युधिष्ठिर के शिविर मे शोक और विलाप चल रहा था, सान्त्वना तथा धैर्य के वार्तालाप हो रहे थे "कभी कभी कोई वीर . अभिमन्यु की वीरतो के राग छेड़ देता, कोई उसके असीम साहम का गुणगान करता, तो कोई उसके उठ जाने से हुई हानि को याद । करके रो उठता। शोक सभा थी वह. प्रत्येक एक दूसरे को धैर्य बन्धा रहा था, और प्रत्येक भासू भी वहाता जाता था। उस वीर बालक की मृत्यु पर युधिष्ठिर के शिविर में ही नही कौरवो के भी शिवरो मे शोक प्रकट किया जा रहा था जाने वाला जा चुका था, हा उसकी वाते रह गई थीं उसकी चर्चा शेष थी - छुप गए वे साजे हस्ती छोड कर। - - अब तो बस आवाज ही पावाल है। संशप्तकों का सहार करके जव अर्जुन अपने शिविर की ओर लौट रहा था, बार-बार उसका मन किसी अज्ञात शोक से बोझल हो जाता। बार-बार उसके मन पर कोई प्राघात सा लगता और वह आप ही आप शोक विह्वल सा हो जाता। उसने एक वार श्री कृष्ण से कहा-"मधुसूदन ! न जाने क्यो मेरा मन दुखित हो रहा है। वार-बार कोई अज्ञात खेद मेरे हृदय पर छा जाता है और ऐसा होता है मानो मेरे हृदय पर शोक का पहाड़ टूट पड़ा हो। मेरा मन नोझल हो रहा है, आंखें बरस पड़ने को हो रही हैं। जाने क्या बात है ?" , श्री कृष्ण मुस्करा पडे-"शत्रुनो का सहार करके लौट रहे हो और वता रहे हो अपने मन को दुखित, बडे आश्चर्य की बात है। सम्भव है मन मे तुम्हारे कोई आशका छुपी हो, हमे कभी कभी विश्वास का रूप धारण करके तुम्हारे मन को शोकातुर कर जाता हो। पर यह तो युद्ध है, इस में कितनी ही घटनाए ऐसी भी घट सकती हैं, जिन्हें सुनकर ही तुम्हारे हृदय पर वज्राघात हो। किन्तु तुम्हे दुखित होना शोभा नहीं देता। धर्य और साहस से काम लो' अर्जुन शांत हो गया। परन्तु कुछ ही दूर आगे आने पर जब
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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