SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०० जैन महाभारत अवश्य कह दे कि घमण्ड मे आकर मेरे पौरुष को न ललकारे। उन्हे मुझ से अपने जीवन यापन हेतू कुछ याचना ही करनी है तो याचको की भाति आय परन्तु राज्य पर उन का कोई अधिकार नहीं। हम किसी की धौंस सहन करने वाले नहीं है। रण भूमि मे उतरेंगे तो हम उन्हें दिग्वा देगे कि दुर्योधन की टक्कर लेना तुम जैसे लोगो के बस की बात नहीं है। दूसरो की सहायता पर गज्य जीतने का स्वप्न देखता छोड दे।" द्रोणा बोले-'दर्योधन । अपने वृद्धजनो के विचार का खले दरबार में विरोध करते हए तुम्हें लज्जा आनी चाहिए। युद्ध की चुनौती दे कर नाश को निमन्त्रित करना बुद्धि मानी नहीं है।" कर्ण फिर भावावेश मे बोला- "हम अभी बूढे नही हुए। हमारा रक्त अभी तक जवान है। हम अपनी मर्यादा पर आच पाने देना नहीं चाहते। राज्य की भीख धौंस देकर मांगनेवालो को हम मुह तोड जवाव दंगे।" बात पुन. विगडती देख विदुर जी बोले- "शाति पूर्वक जो विवाद हल हो जाता है वह झगडे से नहीं। यद्ध किसी भी समस्या का मानवीय हल नहीं होता। हम सब जिस धर्म के अनुयायी है, अहिंसा तथा शाति उसकी आधार शिलाए है। इस लिए हमे जा कुछ करना है वह ठण्डे दिमाग से सोच समझ कर। पाण्डवो के प्रस्ताव का हम स्वागत करते हैं और मैं ममझता हू धृतराष्ट्र का उत्तर इस सम्बन्ध मे न्यायोचित तथा उपयुक्त ही है।" · धृतराष्ट्र को सहारा मिला और उन्होने पुनः अपनी बात दोहराई और राजदूत को विदा कर दिया गया। धृतराष्ट्र ने विदर तथा भीष्म जी को बुला कर मत्रणा की। उन दोनो ने ही पाण्डवो को प्रशसा और दुर्योधन व कर्ण की नीति की निन्दा की और अपनी ओर मे सजय को समझौता वार्ता चलाने के लिए भेजने का समर्थन किया। तब धृतराष्ट्र ने सजय को वुलाया और बोले "मंजय । वस्तुस्थिति क्या है तुम भनि भाति जानते हो।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy