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________________ * छयालीमा परिच्छेद * . 8989009988888... तेहरवां दिन : 09088859006658 . • ज्योही रात्रि का साम्राज्य समाप्त हया और सूर्य की किरणे पृथ्वी को आलौकिक करने लगी, दुर्योधन क्रोध मे भरा हुआ प्राचार्य द्रोण के शिविर मे गया। उस समय कुछ संनिक भी वहा उपस्थित थे और सेनापति द्रोण युद्ध का वाणा पहन रहे थे. जाते ही दुर्योधन ने प्राचार्य को प्रणाम किया और सैनिको की उपस्थिति का परवाह किए विना ही वरस पडा:- .. "प्राचार्य ! युधिष्ठिर के निकट पहुंच जाने पर भी आप कल उसे पकड़ न सके। इस का अर्थ मैं क्या लगाऊ ? यदि सच मुच आप को हमारी रक्षा की चिन्ता होती और अपने वचन का पूर्ति के लिए आप प्रयत्न शील होते तो मुझे विश्वास है, कल जा कुछ हुआ, वह न होता।" प्राचार्य ने शांत मुद्रा मे ही कहा-"कल जो कुछ हुआ उस का उत्तर दायित्व मुझ पर तो नही है शत्रु वल के सामने हमारा न चले, तो इस मे मेरा क्या दोष ?'' "नही, नही, यदि आप युधिष्ठिर को जीवित ही पकड़ने का दृढ़ संकल्प किए होते, तो फिर किस में इतनी शक्ति है कि जो आप को इच्छा पूर्ण होने से रोक सके ? आप को अपने वचन का चिन्ता ही नहीं। आप तो ब्राह्मण है न, श्राप के वचन भी ऐसे ही होते हैं।"-उस समय दुर्योधन का मुख क्रोध के मारे लाल हो रहा था।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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