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________________ .५९६ जन महाभारत हानि । शत्रु की कमजोरी से लाभ उठांना अनुचित नहीं हैं । और फिर हमारे पास अब इतनी सैना कहा जो धर्म युद्ध में उनसे जीत सके । मुझें अपनी प्रतिज्ञा भी तो पूर्ण करनी है।" - वहत सोच विचार के उपरान्त अश्वस्थामा ने उल्लू और कौओं वाली नीति का पालन करने का ही निश्चय किया और कृपाचार्य को जगा कर उसने अपना निश्चय कह सुनाया । अश्वस्थामा की बात सुनकर कृपाचार्य बहुन लज्जित हुए। वे बोले-"अश्वस्थामा -ऐसे अन्याय पूर्ण विचार और तुम जैसे शूरवीर के मन मे । बेटा ! हमने जिसके लिए शस्त्र उठाये थे, वह तो मृत्यु की बाट जोह रहा है। हम उस अधर्मी तथा अन्यायी की ओर से लड़े और हार गए। अब अन्त मे हमे ऐसा अनुचित कार्य नही करना चाहिए, जिससे हमारा आत्मा कलकित हो जाये । अव तो हमारे लिए यही उचित है कि धृतराष्ट्र महा सतो गाधारी और महा बुद्धिमान विदुर के पास चलें और जो वे अाज्ञा दे वही करे। हमें यह शोभा नहीं देता कि इस प्रकार महा पाप कमाए। यह तो महा अधर्म की बात है। तुम्हे ऐसी बात सोचनी भी नहीं चाहिए।' यह सुनकर अश्वस्थामा का क्रोध तथा शोक और भी प्रबल हो गया। बोला-' मामा जी ! धर्म भी धर्मियों के साथ ही चलता है ! जिसे आप अधर्म कह रहे है, वह मेरी दृष्टि मे धर्म है। पिता जी और दुर्योधन को जिस प्रकार मारा गया क्या वह धर्म के अनुकूल है ? तो फिर उसका बदला लेने के लिए मैं भी अधर्म का रास्ता क्यो न लू ? मैं तो निश्चय कर चुका हूं कि अभी ही पाण्डवो के शिविर मे घुस जाऊगा और अपने पिता के हत्यारे धृष्टद्युम्न, दुर्योधन के हत्यारे भीम सेन और उसके भाईयो को जो कि कवच उतारे सो रहे हैं, जाकर मार डालूगा मैं अपने पिता और दुर्योधन का ऋण इसा प्रकार चुका सकता हूं।" कृपाचार्य अपने भाजे की बाते सुनकर बड़े व्यथित हुए कहने लगे-'अश्वस्थामा तुम्हारा यश सारे संसार में फैला है, क्रोध मे आकर ऐसा कार्य मत करो जो तुम्हारे यश की सफेद चादर पर रक्त के छोटे लगा दे। सोते हुए शत्रु को मारना कदापि धर्म नहीं है। तुम यह विचार त्याग दो।"
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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