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________________ * इक्कतालीसवां परिच्छेद * * ****** **** ** मत्यु का रहस्य 1 .. घोर तिमिर की प्रवनिका वमू-धुरा पर निश्चेष्ट पडी थी। कुरुक्षेत्र में निस्तब्धता व्याप्त थी, रण भूमि मे. कौरवो की हठ को वेदी पर बलि चढे रण योद्धाओ के शवो के अग प्रतिरंगो को गीदह तथा अन्य जगली पशु लिपट रहे थे। और कभी कभी मानव शरीरों के मांस से क्षधा पूर्ति कर के तथा मानव रचित नाश की लीला पर मुग्ध होकर गीदड मिलकर अपना हर्ष नाद करते, हयाऊ, हमाऊ मे क्षेत्र की निस्तब्धता भग हो जाती। दूसरी ओर रण क्षेत्र के किनारे अंधकार को भेदती कुछ दीप ज्योतिया व मगालों अधकारपूर्ण प्राकाश मे टिम टिमाते सितारो की बारात का दिखाई दे रहे थे। परन्तु हजारों की संख्या में खडे इन हरा कनिकट चल कर देखा जाता तो यह स्पष्ट हो जाता उन डंगे में जिनमे भरत खण्ड के परम प्रतापी यशस्वी शूरवीर विश्राम कर रहे थे, अभी तक आपस मे उन वोरो के रण कौशल की प्रशमाए पर रहे थे जिनके विरुद्ध वें सारे दिन पूरी शक्ति से लडते रहे है । प्रतएव वे डेरे सजीव थे। अपने अंक में सहस्त्रों जीवन ज्योतियों को श्रम दिए हुए थे। कुछ डेरों में दिन में घायल हए रण वीरो की चिकित्सा का जा रही थी। ऐसी प्रोपधियो के लेप किए जा रहे थे. जिनके सेवन से रायि भर में वे योद्धा दूसरे दिन युद्ध करने योग्य हा जाय",
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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