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जैन महाभारत
1. ब्राह्मण द्रवित हो कर बोला-"तुम मेरी धर्म-कर्म की सगिनी हो, मेरी सन्तान की मां हो और मेरी पत्नी हो। मैंने सदा ही तुम्हारे प्रेम की ऊष्णता से अपने सरद पडते विचारो तथा भावो को गरमी प्राप्त करी है। तुम ने जीवन के हर क्षण में मेरे साथ सच्चे मित्र की भाति मेरा साथ दिया है। तुम ने 'निर्धनता मे भी मुस्कान का हाथ नही छोडा । मेरा जीवन सर्वस्व तुम्ही हो। तुम्हे मृत्यु के मुह में भेज कर मैं अकेले कैसे जीवित रह सकता हूं?" - "पिता जी! आप मुझे ही भेज दें। मैं ऐसे मुसीवत के समय आप के काम आ सकू और माता पिता के ऋण से मुक्त हो सकू तो अहोभाग्य !" ब्राह्मण की कन्या बोलो।
ब्राह्मण अवरुद्ध कण्ठ से बोला--"हाय मैं अपनी बेटी की बलि कसे चढा दू? यह तो मेरे पास एक धरोहर है, जिसे सुयोग्य वर को व्याह देना मेरा कर्तव्य है। हमारे वश की वेल को चलाए रखने के लिए हमे जो कन्या मिली है, भला इसे मौत के मुह मे कंसे भेज सकता हू? यह तो घोर पाप होगा।"
पुत्र तुतला कर बोला- "पिता जी | तो मैं जाताहू " • "नहीं, नही मेरे लाल । मेरे कुल के तारे ! यह कदापि नही हो सकता। ब्राह्मण कहने लगा और फिर अपनी पत्नी को सम्बोधित करके वोला-तुम ने मेरा कहना न माना, उसी का फल अब भुगतना पड़ रहा है। यदि मैं शरीर त्यागता हू तो फिर इन अनाथ वालकों का पालन पोषण कौन करेगा? हा देव । अव मैं क्या करू ? और कुछ करने से तो अच्छा यही है कि हम सब एक साथ मृत्यु को गले लगा ले। यही श्रेयस्कर होगा।"कहते कहते ब्राह्मण सिसक सिसक कर रो पड़े।
ब्राह्मण की पत्नी अवरुद्ध कण्ठ से बोली-“प्राण नाथ ! पति को पत्नी से जो कुछ प्राप्त होना चाहिए, वह मुझ से आप को प्राप्त होगया। पुरुप स्त्री के विवाह का उद्देश्य है वह पूर्ण हो गया। क्योकि मेरे गर्भ से एक पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हो
।।