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बृहन्नला रण योद्धा के प मे
'नही'
___"तुम ने तो शत्रुयो के वस्त्र व शस्त्रहरण करके रनिवास स्त्रियो को पुरस्कार स्वरूप देने की प्रतिज्ञा' की है। सोत्रो
मही, तुम उन्हे कैसे मुह दिखायोगे।"-बृहन्नला ने। लोक लाज का भय दर्गाकर उसे सम्भालना चाहा । . . . . . .
* "कौरव जितनी चाहे गौए चरा कर ले जाये-उत्तर कहने लगा-स्त्रिया मेरी हमी उडाएं तो भले ही उडाए। पर मैं लगा नहीं। लड़ने से आखिर लाभ ही क्या है ? - मैं लौट जाऊगा। रथ मोड लो।" : 1
"नही । मैं राजकुमार की हमी उड़वाना नहीं चाहती। मुझे अपनी इज्जत का भी तो ख्याल है ."
"भाड में जाये तम्हारी इज्जत। मैं मौत के मह में नहीं दूंगा। तुम रथ नही मोडोगी तो मैं रथ् से कूद कर अकेले ही दल लौट पड गा।" .
"राजकुमार | ऐसी बाते मह से न निकाली। तुम वीरो को सन्तान हो। तुम्हारी भुजायो मे इतनो शक्ति है कि ऐसी ऐसी एक नही हजार कौरव सेनापो को पान की यान मे मार भगाए। और फिर तुम्हारे साथ मैं भी तो ह। मैं मरूगी तो तुम मरना वरना कौन भला तम्हारे मुकाबले पर- इट मकता है ।" . .
बृहन्नला के माहम दिलाने पर भी उत्तर अपने को न मम्भाल पाया। उसने प्रावेश मे प्राफर कहा-"तुम्हे तो अपनी जान मे माह नहीं। पर मैं क्यो मा? तम रथ नही लौटाता तोन लोटायो। मैं पदल हो भाग. जाउ.गा।"
___ कहते गाहने 'गजकमार उनर ने धनप बार्ग पं.क दिए गौर और चलते रथ में हो या पटा। भय के मारे वह प्राग में न रहा पोर पागलो को भनि नगर की प्रोन भागने लगा।
"गजकुमार | बहरो, भागो मन। अत्रिय होकर नम "मा करन हो। छी छो। देगा नया कहेंगे। जगन्वाना पा करने महने वहानना भीगने मनमा मायाला
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