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. .-जयद्रथ वध- reak or car...-५.६५..
' 'नही, नही यह तो तुम्हारों बहाना है । सार्फ क्यो नही कहते कि उस सेकेट पूर्ण स्थान पर तुम जाना ही नहीं चाहते। युधिष्ठिर अर्जुन के स्नेह में आकर कह गए।
सात्यकि के हृदयं को इन शब्दो से ठेस लगी, आहत पक्षी की भाति तंडप कर वह बोला-'महाराज '। सुझे ज्ञात नही था कि आप रण क्षेत्र में खड़े होकर अपने इस अनन्य भक्त के लिए यह कटु शब्दं भी प्रयोग कर सकेंगे। मुझे इसका बड़ा ही खेद है। तो भी श्रीपंको ललकारने और फटकारने का अधिकार है, इसलिए मैं सर्व कुछ सहन करू गो। फिर भी शंत्रो से आपकी रक्षा के लिए अन्त समय तक डटा रहूगा ।" .
यह सुन युधिष्ठिर अपने शब्दो पर पश्चाताप करने लगे और बहुत सोच विचार के बाद बोले -“सात्यकि ! मुझे क्षमा करना' । वास्तव में अर्जुन मुझे अपने प्राणो से भी अधिक प्रिय है । जब कभी मैं उसे 'मर्कट में पड़ा महसूस करता हू तो बेचैन हो जाता हूँ। तुम मेरी बात मानो और उसकी जाकर खबर लो। यहा, मेरी: रक्षा के लिए भीमसेन है. धृष्टद्युम्न है और भी कितने ही वोर हैं, तुम्हे. मेरी आज्ञा माननी ही होगी।" ५. विवश होकर सात्यकि चलने की तैयार हुआ। धर्मराज ने सात्यकि के 'रथे-परं हर प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और युद्धः सामग्री रखवा दी और खूर्व विश्राम करके ताज हो रहें चंचल तथा चतुर घोडे भो जुतवां दिए । आँशीर्वाद देकर सात्यकि को विदा किया । । । सात्यकि ने रथ पर सवार होकर भीमसेन से कहा- "महावली भीमसन । केशव' और धनंजय ने ती' धर्मराज का मुझे सौंपा था; उसी भरोसे के साथ मैं युधिष्ठिर को तुम्हें सौंपता हू । उनकी पॅच्छी तरह देख भाल करना और द्रोण से 'सीवधान रहना ।" । सारथि ने घोड छोड़ दिए । हवा से बात करते घोड' कौरव सेना की ओर तीब्र गति से भागने लगे । रास्ते में कौरव-सेना ने सात्यकि का डटकर, मुकावला- किया । पर सात्यकि उनको भारी सेना को तितर बितर करता हुआ आगे बढता रहा।
जैसे ही सात्यकि युधिष्ठिर को छोड़कर अर्जुन की ओर चला, वैसे ही द्रोणाचार्य ने पाण्डव सेना पर हमले करने प्रारम्भ