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जैन महाभारत
क्रोध से लौटेगे। उन का स्वसुर द्रुपद मेरा शत्रु है। 'अपने अपमान का बदला लेने के जिए उसने तपस्या की थी जिससे धृष्टद्युम्न प्राप्त हुआ। मैं जानता हू वह मेरे प्राण हरने वाला है। उसके कारण मेरा नाश होना है। और अब सारे लक्षण बता रहे हैं कि मैं और तुम एक ही नौका में सवार हो गए हैं। यह नौका डूबनी अवश्य है। इस लिए जो पुण्य कर्म करने हो, वह इन तेरह वर्ष मे ही कर लो। विलम्ब न करो, धर्म पथ पर बढो। वरना मनुष्य जीवन बेकार हो जायेगा। दुर्योधन ! मेरी बात मान लो युधिष्ठिर से सन्धि कर लो। इसी मे तुम्हारा भला है। , मैंने अपनी राय दे दी, अब तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो।"
द्रोणाचार्य को दुर्योधन अपने पक्ष मे करने के लिए ही उनके पास गया था, पर वह कोई श्रेष्ठ राय मानने को तैयार नहीं था, उस ने उनकी बातें टाल दी।
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एक दिन संजय ने धृतराष्ट्र से पूछा- "आप चिन्तित दिखाई देते हैं, क्या कारण है ?"
पाण्डवों से बैर हो जाने के बाद मैं निश्चिन्त रह ही कमे सकता हूं?" अन्धे राजा ने उत्तर दिया। . संजय बोला- "आप सच कह रहे हैं, जिसका नाश होना होता है उसकी बुद्धि फिर जाती है। आप ने लड़को के कहने म श्रा कर अधर्म को अपनी नीति का आधार बनाया। किसी के पापो का फल देने के लिए प्रकृति किसी के सिर पर कुल्हाड़ा थोड़ ही चलाती है, उसके पाप ही ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर देते है, जिस से वह उल्टे रास्ते चल कर स्वय गड्ढे में गिर जाता हैं।"
धृतराष्ट्र व्याकुल हो कर कहने लगे- "दुख तो इस बात का है कि मैंने विदुर की राय भी नहीं मानी। जब कि मैं सदा ही बुद्धिमान की बात मानता था, उसने जो राय दी वह धर्म और नीति के अनुकूल थी। किन्तु मैं अपने नासमझ बेटो की बात