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जैन महाभारत
दूर दूर तक विकास किया और भारत खण्ड मे इस खण्ड की इतनी सीमाएं बढाई कि इस क्षेत्र मे सभी इस राज्य से प्रभावित हुए। किसी की भी शक्ति नही हुई कि इस राज्य को चुनौती दे सके । उन के पच महाव्रती मुनि बाणा स्वीकार करने के उपरान्त पाण्डवो का अधिकार था. और पाण्डवो मे भी ज्येष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर का कि वे इस राज की बागडोर को सम्भाले परन्तुं पाण्डव रस समय बाल्यवस्था मे थे और विवश होकर पाण्ड नरेश को राज्य सिंहासन धृतराष्ट्र को सौपना पडा। लेकिन विल्कुल इसी प्रकार सिहासन सौपा गया, जैसे पाण्डवो का हाथ उन्होने धृतराष्ट्र के हाथ मे दे दिया था। एक अमानत थी जो धृतराष्ट्र को सौंपी गई। जब उस अमानत के वास्तविक अधिकारी व्यस्क हुए तो धृतराष्ट्र को चाहिए था कि वे उस सिंहासन को उन्हें सौंप देते, जिन कि वह सम्पत्ति थी। परन्तु ऐसा नही हुआ,कौरव पाण्डवो के अधिकार की चुनौती देने लगे और बुद्धिमान धृतराष्ट्र ने पूज्य भीष्म पितामह और महान आत्मा विदुर की सलाह से हस्तिनापुर राज्य को दो भागो मे विभाजित कर के एक भाग्य दर्योधन को और दूसरा पाण्डवो दे दिया पाण्डवो के दिल पर तनिक भी मैल नही आया। उन्होने उजडे हुए खाण्डव प्रस्थ का जीर्णोद्धार किया। किन्तु वे अभी अपने राज्य के कारोवार को सम्भाल ही पाये थे कि उन पर दूसरी आपत्ति आ पड़ी और हस्तिनापुर के पराक्रमी नरेश पाण्डू की सन्ताने वनकी खाक छानने के लिए भेज दी गई । इस शर्त पर कि १२ वर्ष के बनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास वे उपरान्त वे अपनी खोई हुई सम्पत्ति को वापिस लेने के अधिकारों होगे । उन्होने इसी विश्वाम पर कि उक्तशर्त ममस्त मुलझे हुए तथा माने हुए वयोवद्ध नथा नीतिवान लोगों के सामने रखी गई है, जो पूर्ण होगी. वह राजा दुर्योधन का एक वचन . वह था एक क्षत्रिय राजा का वचन । क्षत्रिय वीरो ने क्षत्रिय राजा के वचन पर विश्वास किया और ज्यो त्यो विभिन्न कण्ट उठा . कर उन्होंने १३ वर्ष व्यतीत कर लिए । फिर वह अधिकारी हो गए कि शर्त व वचन के अनुसार अपना राज्य वापिस ले ले लेकिन ऐसा लगता है कि नीतिज्ञो तथा शास्त्रज्ञो के समक्ष दिया गया वचन पूर्ण नहीं होगा। यदि ऐसा है तो यह कहा का न्याय है कि धृतराष्ट्र को मन्लाने तो सम्पूर्ण राज की अधिकारी बने और पाण्डु नरेश की