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जैन महाभारत
हो उठे, कितने ही लोग पसीने मे नहा गए।
परन्तु दुर्योधन और उसके भाई मारे खुशी के नाचने लगे, पर युयुत्सु नाम का धृतराष्ट्र का एक बेटा शोक सन्तप्त हो उठा, उसके मुख से निकल हो तो गया- "जब यह घोर पाप होने लगा, तो कुरु वश के नाश के दिन ही आ गए समझो ।"- और मारे लज्जा के उसने अपना सिर झुका लिया। शकुनि हर्ष चित्त हो कर बोला
अन्तिम बाजी है यही , यह भी मेरे हाथ। --
बनी द्रौपदी भी गुलाम, अपने पति के साथ ॥ - और उसने पांसा फेक दिया।
आनन्दित हो कर उसने शोर मचाया-'यह लो, यह बाजी भी मेरी ही हो गई।" - दुर्योधन को तो जैसे मन इच्छित फल मिल गया, वह विजय से मदान्ध हो कर विदुर जी को आदेश देता हुआ बोला- 'आप अभी रनवास मे जाये और उसे तत्काल यहां ले आये, आज से वह हमारी दासी है, उसे हमारे महल मे झाड़ देने का काम करना होगा आज मैं उस चुडैल से अपने अपमान का अच्छी तरह बदला लूंगा।"
विदुर जी को दुर्योधन की बात से बडा क्रोध आया, वे बोले "मूर्ख, क्यो मदान्ध हो कर अपनी मृत्यु और कुल के नाश को निमन्त्रण कर रहा है। पाप की ऐसी पट्टी तेरी आँखो और बुद्धि पर वन्ध गई है कि मानवीय व्यवहार को भी भूल गया। सती द्रौपदी के लिए तेरे मुख से ऐसे शब्द निकलने लगे कि कोई गवार व्यक्ति भी अपने भाई की स्त्री के लिए नही कह सकता। अपने विछाये हुए जाल में युधिष्ठिर को फांस कर क्या अब तू इतना पाप भी करने पर उतारु हो गया है कि एक सती की आबरू पर भी हाथ उठाने को तैयार है । कुरू वश के मस्तक पर कलंक लगाने से पहले, यह तो सोचा होता, कि जिन्हों ने अपनी बल, बुद्धि से इतन बड़े पृथ्वी खण्ड पर राज्य किया है, वह इस लिए नही कि किसी एक