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वाजी
एक एक करके सब पाण्डवो को पुकारा, घोषणा की कि अब वे उस के दास हो चुके है। शकुनि की दाद देने वालों के हर्ष नाद और 'पाण्डवो की इस दुर्दशा पर तरस खाने वालो के हाहाकार से सारा सभा-मण्डप गूज उठा।
इधर सभा मे खलबली मच रही थी, उधर शकुनि युधिष्ठिर से बोला "अब बताइये, क्या लगाते है।"
"अब मेरे पास धरा ही क्या है लगाने को, सब कुछ तो हार चुका।"-युधिष्ठिर ने निराशा व उदासीनता - भावो से दुखित हो कर कहा।
"नही, आपके पास एक और चीज शेष है, जिसके चरण घर मे आते ही आपको सुख सम्पदा और यश प्राप्त हुआ।"-शकुनि ने द्रौपदी की ओर सकेत करते हुए कहा "मैं तुम्हारी बात समझा नही, ऐसी भला कौन सी वस्तु है"
"वही साक्षात लक्ष्मी द्रौपदी, क्या पता उसी के भाग्य से आपको विजय प्राप्त हो जाये ।" शकुनि ने युधिष्ठिर को फासने के लिए कहा।
___ - और जुए के नशे मे चूर युधिष्ठिर, 'जब तक स्वास, तब तक आश" की लोकोक्ति के अनुसार कह बैठे-'तो चलो, मैं उस रूपसि, लक्ष्मी, द्रौपदी की भी बाजी लगाई- 'यह मुंह से निकल तो गया, पर फिर वे स्वय हो विकल हो गए, उसके परिणाम को सोच कर वे कांप उठे ।
युधिष्ठिर की वात पर सारी सभा मे हा हा कार मच गया, वृद्धजनो की ओर से "धिक्कार धिक्कार" की आवाज आई। विदुर जी बोल उठे-"जुए के नशे मे अन्धो ? क्या सती द्रौपदी की लाज का भी जुना खेल रहे हो। तुम मनुष्य हो या पशु । देखो इस पाप से कही आकाश न टूट पडे ।"
कुछ लोग बोले-"छि छि कैसा घोर पाप है ?" कुछ लोगो के नेत्रो मे अश्रुधार बह निकली, भीष्म और द्रोणाचार्य व्याकु