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जैन महाभारत
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कि जब से तुम रण भूमि मे आये हो और विशेपतया जब से श्रीकृष्ण के पास हो आये हो, तभी से तुम्हारा मस्तक फ़िर गया है। तुम पागलों जैसी बातें करते हो, मेरे वैरियो की प्रशसा, करते हो, और मुझे मैदान से भाग जाने को उकसाते हो, क्या इसका यह अर्थ नही है कि तुम वैरियो से मिल गए हो। नमक हराम !"
उसी समय दूसरा मत्री, डभक बोल उठा- 'महाराज श्रवीर कभी रण क्षेत्र से इस प्रकार वापिस जाने की बात भी नहीं सोचा करते । वे या तो विजयी हो कर लौटते हैं या- प्राण देदेते हैं। रण भूमि मे मरने वालो को यश मिलता हैं हस की बाते महाराज के लिए अपमान जनक है ।" .
डभक की बाते सुन कर जरासिन्ध और भी बिगड गया उस - ने हस को ललकारते हुए कहा- “सुन रहे हो, मंत्री जी की बात !
जो भी तुम्हारी बात मुंह से सुनेगा वही तुम पर थूकेगा, अतएव भविष्य मे ऐसी बात मुह से मत निकालना, जो मेरे कोप को जागृत करदे, मेरी तलवार वैरियो का रक्त पी सकती है, तो वैरियो के हितैषियो को, आस्तीन के नागों को भी यमलोक पहुचा सकती
बेचारा हस अपना सा मुंह ले कर रह गया। बोला कुछ नहीं प्रात. होते ही जरासिन्ध ने सेनाप्रो को तैयार होने का आदेश दिया और शिशुपाल को उस दिन के लिए सेनापति नियुक्त कर स्वय भी रण के वस्त्र, वस्त्र आदि पहन लिये । सवालाख सेना सज कर तैयार हो गई । जरासिन्ध ने अपनी खड़ग हवा में लहराते हुए कहा- "युद्ध होते कई दिन बीत गए। शंगालों की सेना अभी तक सामना करती रही। पर अब मैं यह सहन नही कर सकता। अत' मैं इस खडग की शपथ लेकर कहता हूँ कि चाहे जो हो अाज में कृष्ण का सिर इस खडग से उतार लूगा। जिस सैनिक में एक एक वैरी का खून पी जाने का साहस न हो, वह अभी ही पीछे चला जाय ।"
शिशुपाल वोला-"महाराज! आप निश्चित होकर लडिए ।