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________________ २८५ श्री कृष्ण जी अर्जुन के सारथी -"बलराम ने दुर्योधन को समझाते हुए कहा।" दुर्योधन बोला-"आप तटस्थ रहने की बात कह कर मुझे निराश कर रहे है, जब कि आप किसी को निराश नहीं किया करते।" "दुर्योधन तुम निराश क्यो होते हो। तुम तो उस वश के हो जिसे राजा लोग पूजते है। साहम से काम लो, तुम्हे कमी किस बात की है। तुम्हारे पास इतनी विशाल सेना है। द्रोणाचार्य, कृपा र्य, कर्ण और भीष्म पितामह जैसे रण कुशल वीर है। जाओ तत्रियोचित रीति से युद्ध करो।-"बलराम बोले। "किन्तु आप मेरी सहायता न करे यह दुख की बात है।" मेरी सहायता तो शाति वार्ता मे ही मिल सकती है। मेरे विचार से युद्ध से कोई समस्या हल नहीं होती। और यदि मुझे युद्ध मे जाना ही पडे तो मैं कृष्ण के विरोध मे नही जा सकता। बलराम का उत्तर सुन कर दुर्योधन मौन रह गया। बलराम . ने फिर उसे प्रोत्साहित किया। हस्तिना पुर को लौटते समय दुर्योधन का दिल बल्लियो उछल रहा था। वह सोच रहा था अर्जुन खूब बुद्ध बना। निःशस्त्र श्री कृष्ण को माग बैठा। कितना सौभाग्य शाली हू मैं। द्वारिका की विशाल सेना अब मेरी है और वलराम जी का स्नेह मुझ पर ही है। फिर किस बात की कमी है। बेचारे निःशस्त्र श्री कृष्ण मेरे विरुद्ध क्या काम आयेगे? इसी प्रकार अपने मन मे लड्डू फोड़ता हुआ वह अपनी राजधानी जा पहुचा। दूसरी ओर दुर्योधन के चले जाने के उपरान्त श्री कृष्ण ने पूछा-"सखे अजुन ! एक बात बतायो। तुम ने मेरी इतनी विशाल सेना की | अपेक्षा मुझ नि शस्त्र को क्यो पसन्द किया ?"
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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