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जैन महाभारत
__ श्री कृष्ण ने स्वीकृति देते हुए कहा- "अर्जुन ने मुझे मागा है, इस लिए मेरे वश के वीर तथा मेना आप की सहायता के लिए शेष रह गए। आप निश्चिन्त रहिए।"
दुर्योधन मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ। वह सोचने लगा"अर्जुन निरा मूर्ख निकला, वह बहत वडा धोखा खा गया। नि: शस्त्र कृष्ण को लेकर वह क्या कर सकेगा? लाखो वीरो से भग भारी भरकम सेना सहज ही मे मेरे हाथ लग गई।
यह सोचता और पुलकित होता वह बलराम जी के पास गया। हर्षातिरेक मे झूमते दुर्योधन को देख कर बलराम ने उस के आनन्द का कारण पूछा। उस ने श्री कृष्ण के पास जाने और पाण्डवो को नि शस्त्र श्री कृष्ण तथा कौरवो को विशाल सेना मिलने की बात सुनाई। ध्यान पूर्वक मारी बात सुनने के बाद बलराम ने पूछा-"आप इस बात से बडे प्रसन्न हैं, यह खुशी की बात है। अब आप मुझ से क्या चाहते है ?"
"पाप तो श्री कृष्ण के वश के वीर ठहरे, और है मेरे पक्ष पाती। आप भीमसेन की टक्कर के योद्धा हैं, आप तो हमारी प्रोर रहेगे ही।-“दुर्योधन ने कहा। . , ..
___"मालूम होता है कि उत्तरा के विवाह के अवसर पर मैंने जो बात कही थी, उसकी सूचना आप को मिल गई। , मैने तो कई वार कृष्ण से कहा कि पाण्डव तथा कौरव दोनों हमारे बराबर के सम्बन्धी हैं, मैंने तुम्हारे सम्बन्ध में भी बहुत कुछ कहा। पर कृष्ण तो मेरी सुनता ही नही। अच्छा होता कि आप लोग आपस मे मिल कर रहते। पर आप लोग लडेगे ही, यह दुख की बात है। हां. मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं इस युद्ध मे तटस्थ रहूगा। क्यों कि जिधर कृष्ण न हो उधर मेरा रहना ठीक नहीं और म सम्पति के लिए व्यर्थ का रक्त पात ठीक नही ममझना। में जुए को भी धर्म के प्रनिकल ममझता हू और एक ही वश के दो पक्षा का रण क्षेत्र मे उतरना भी अच्छा नहीं समझता। इस कारण : तुम्हारी महायता नही कर सकता। मेरा तटस्थ रहना ही उचित ह