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श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी
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स्वीकार करनी होगी ।"
यह सुन श्री कृष्ण दुर्योधन की ओर देख कर बोले -- "राजन् ! यह हो सकता है कि आप पहले आये हो । पर मेरी दृष्टि तो कुन्ती आप पहले पहुचे जरूर, पर मैंने पुत्र अर्जुन पर ही पहले पडी । तो पहले अर्जुन को हो देखा। वैसे मेरी दृष्टि में आप दोनो ही आयु में समान हैं । इस लिए कर्तव्य भाव से मैं प्राप दोनो की समान रूप मे सहायता करूंगा। पूर्वजो की चलाई प्रथा यह है कि जो छोटा हो पहले उसे ही पुरस्कार देना चाहिए। अर्जुन श्राप से छोटा है, इस लिए मैं सब से पहले उसी से पूछता है कि वह क्या चाहता
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और अर्जुन की ओर मुड कर वे बोले - "पार्थ । मुनो कौरव' तथा पाण्डव मेरे लिए दोनो समान है। दोनो ही मेरे पास सहायता के लिए आये हैं। इस लिए मैंने निश्चय किया है कि दानों एक ओर मेरे परिवार के वीर हैं, जो रण की सहायता करू । कौशल मे मुझ से किसी प्रकार कम नही । जो बड़े साहसी और वीर है । उनकी अपनी एक सेना भी हैं और सभी यादव चोरों को एकत्रित करके उनकी एक बडी सेना बनाई जा सकती है। यह सब एक मोर है और दूसरी ओर मैं स्वय हूँ । अकेला ही । और मेरी प्रतिज्ञा है कि पाण्डवो तथा कौरवो के बीच होने वाले किसी युद्ध मे शस्त्र नही उठाऊंगा। अर्थात मे निशस्त्र हू तुम इन दोनो मे जिसे अपनी सहायता के लिए मागना चाहो, माग सकते हो। तुम मुझे निःशस्त्र को चाहते हो अथवा मेरे बम वालो की सेना को ?”
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बिना किसी हिचकिचाहट के अर्जुन बोला- "आप स्त्र ठावें या न उठावें, आप चाहे लडे अथवा न लड़े, मैं तो आप को चाहता हू"
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"दुर्योधन के आनन्द की सीमा न रही उसने हर्षचित होक कहा - " बस, मुझे आप अपने वश के वीर तथा अपनी सेना 'दीजिए 1"
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