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________________ ४६८ जेन महाभारत कुछ सुनना ही चाहते हैं तो मैं बस यही कहना चाहता हूं कि - परस्पर बैर नाश का कारण बनता है। युद्ध से कभी कोई समस्या . हल-नही होती शुभ प्रकृति वाले व्यक्ति मनुष्य रूप मे भी देवता । समान ही है उन्हे परास्त करना असम्भव है। और जिन प्रभु का वताया मार्ग ही सच्चिदानन्द की प्राप्ति का एकमात्र साधन है।। अव मेरा गला सूखता जा रहा है। बेटा दुर्योधन मुझे पानी चाहिए।"~-इतना कह कर पितामह मौन हो गए। "पितामह ! अभी ही लाया" कह कर दुर्योधन वहा स पानी लेने चला। तभी पितामह की बाणी गजी।-"ठहरा ! रण क्षेत्र मे बाणो की शय्या पर पड़े व्यक्ति के लिए उस जल का आवश्यकता नही । मेरी बात तुम नही समझोगे।" दुर्योधन चक्कर में पड़ गया, वह पितामह का आशय न समझ पाया। हतप्रेम होकर बोला -"पितामह ! फिर कैसा जल चाहिए आपको ?" . . . दुर्योधन के प्रश्न का उत्तर न देकर, पितामह अर्जुन को लक्ष्य करके बोले-"हा वेटा ! तुम ही मुझे जल भी पिला सकते हो । म सारा शरीर तुम्हारे वाणो की चोटो से जल रहा है। इस उष्णता का तुम्ही शान्त कर सकते हो " । " अर्जुन ने तुरन्त गाण्डीव पर एक तीक्ष्ण बाण चढाया आर पितामह की दाहिनी बगल मे पृथ्वी पर सम्पूर्ण शक्ति लगा कर ली मारा। और वाण लगते हो विजली टूटने की सी अावाज आ पृथ्वी दहल गई और एक जल स्रोत वडे वेग से फूट नि मानो शान्तनुनन्दन भीष्म की मा गंगा के स्तन से दुग्ध धारा हो। अमृत समान मधुर तथा शोतल जल पीकर पितामह वड . हुए बारम्बार अर्जुन को आशीर्वाद दिया, पर वह भार न युद्ध मे उस की विजय की कामना का था और न का वृद्धि का, वल्कि था धर्म निष्ठ होने का। दुर्योधन को इस से वडी प्रसन्नता हुई। वह मोचन पितामह वहत हो शुभ प्रकृति के महापुरुष हैं, कही युद्ध में 3" को विजय का प्रागीर्वाद दे देते तो कौरवो का ढेर हो जाता। . उस समय सूर्य का रथ अपनी मजिल की अन्तिम अध्याय का प्रारम्भ कर रहा था, जैसे भास्कर अन्तिम सांसे ले रहे पृथ्वा र का था और न कीर्ति की
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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