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जैन महाभारत
बरसने सी लगी। दुर्योधन ने भी, तब तो अपने वीरों का अनुकरण श्रेयस्कर समझा और वह भी वहा से निकल भागा।
अर्जुन ने देखा कि दुर्योधन घायल हो गया है और वह मुह से रक्त वमन करता बड़ी तेजी के साथ भागा जा रहा है। तब उसने युद्ध की इच्छा से अपनी भुजाए ठोक कर दुर्योधन को ललकारते हुए कहा--- 'धृप्टराष्ट्रनन्दन । युद्ध मे पीठ दिखा कर क्यो भाग रहा है? अरे, इस से तेरी विशाल कीर्ति नष्ट हो जायेगी। तेरे विजय के बाजे कैसे बजेगे? तूने जिन धर्मराज युधिष्ठिर का । गज्य छीन लिया और अपनी इस कपट पूर्ण विजय पर फूला नहीं। समाता, उन्ही का आज्ञाकारी यह माहयम पाण्डव, तो इस ओर खडा है, तनिक मुह तो दिखा। राजा के कर्तव्य का तो स्मरण कर। तुझे डब मरने को कदाचित उधर कोई ताल न मिले, आ मैं मौत का रास्ता दिखाऊ ! - ... अरे, तू तो भागा ही जा रहा है। हां, तेरा कोई रक्षक नही रहा, जल्दी भाग, मेरे हाथो क्या मरता है।"
कह कर अर्जुन ने एक व्यग्य पूर्ण अट्टहास किया।
इस प्रकार युद्ध मे अर्जुन द्वारा ललकारे जाने पर दुर्योधन को बडी लज्जा आई। उसके सम्मान को धक्का लगा था जिसे वह यूही सहन नही करने वाला था। वह चोट खाये हुए नाग का भाति पीछे लौटा। अपने क्षत विक्षत शरीर को किसी प्रकार संभाल कर वह अर्जुन के मुकाबले पर पाया और उस ने अपने वारा को पकार कर कहा-कौरव वीरो। तुम्हे अपने पौरुष की सौगंध । आज अर्जुन का गर्व चूर्ण किए विना गए ता तुम्हे जीने का कोई अधिकार नही। लौटा और युद्ध करो। दुर्योधन का जा भा मित्र, सहयोगी अथवा साथी हो, पाड़े समय पर काम आने का इच्छा रखता हो, यदि वह अभी तक जीवित है तो आये और ना साथ दे ।"
इस पुकार को सुन कर युद्ध भूमि से दूर विश्राम करता, कण दुर्योधन की सहायता के लिए दौड़ पड़ा। उत्तर की ओर से *