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* तालीसवां परिच्छेद * . .
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बारहवां दिन
★★★★★★ - ग्यारहवें दिन का युद्ध समाप्त करके लौटे तो रण बाण उतार कर, कुछ खा पी कर दुर्योधन सीधा द्रोणाचार्य के शिविर मे पहुची ।' पीछे पीछे भिगर्त नरेश सुशर्मा भी पंहुचं गया। दुर्योधन का मुह लटका हुआ था, वह चिन्ता मग्न था। उस के मनोभाव को पढे करें द्रोणाचार्य बोले- 'मैं जानता हू तुम चिन्तित और दुखित हो क्यों कि मैं अपना वचन पूर्ण न कर सका। परन्त इसका कारण है धनजय श्री कृष्ण जिस के सारथि हैं, उस के सामने आने पर यधिष्ठिर को पकड पाना दुर्लभ है । इस बात को भी तुम समझ लो।" "
परन्तु प्राचार्य जी ! विना युधिष्ठिर को बन्दी बनाए हमारी विजय असम्भव है।" साफ जाहिर था कि उस दिन के युद्ध से दुर्योधन का मनोबल बहुत टूट गया था। उस के शब्द उसके विचार को प्रगट कर रहे थे।
' द्रोण बोले-"तुम्हारी योजना की पूर्ति के लिए मनोवल का सक्षक्त होना आवश्यक है। अधीर क्यो होते हो।"
"प्राचार्य ! ग्यारह दिन मे मैं ने जो खोया है, उसे देखकर में सिहर उठता हूं। अव सान्त्वना तथा धैर्य चन्धाने से काम न चलेगा।" दुर्योधन ने अपने मनोदश्म प्रगट करते हुए कहा । "वस एक ही उपाय है-गम्भीरता पूर्वक द्रोण कहने लगे-यदि किसी - प्रकार अर्जुन को कही - उलझा दिया जाय। उलझाया भी ऐसा.