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कुन्ती को कर्ण का वचन
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तुम ने क्यो नही बताया कि मैं रथवान का पुत्र नहीं बल्कि पान्ड नरेश की सन्तान हू? तुम ने लोक निन्दा के भय से मुझे सदा अपमानित होते देखा। तुम ने अपनी प्रतिष्ठा के लिए मेरी प्रतिष्ठा की बलि दी। तुम कैसी मा हो? मैने आप ही तुम्हारा मातृवत् अादर किया है। पर आज तुम से मुझे घृणा हो गई है। माँ के उच्चादर्श को तुम ने कलकित कर डाला है।" कर्ण ने आवेश मे आकर कहा। उस समय वास्तव मे उस के हृदय में घृणा ठाठे मार रही थी।
कुन्ती तिलमिला उठी। उस के नेत्रो से अश्रु आ रहे थे । वह घुटनों के बल बैठ गई और बडी करुणापूर्ण मुद्रा मे बोली-"बेटा ! मैं जो भी हू तुम्हारे सामने हूँ। मैं तुम्हारी दशा को देखकर सदा मन ही मन अपने को धिक्कारती रही । परीक्षा के समय जब अर्जुन ने तुम्हारा अपमान किया था, तो मेरा हृदय चीत्कार कर उठा था। जब तुम दोनो मे उन गई थी तो मै मूछित होकर गिर पड़ी थी। मैं तुम्हे सदा ही अपनी गोद में लेने के लिए तडफती रही । मैं मन ही मन आंसू पीती रही। मैंने सारा जीवन तुम पर हुए प्रन्याय के प्रायश्चित स्वरूप हादिक दुःख, पीड़ा और शोक मे व्यतीत किया है। सोचो तो उस मा के मन मे क्या गुजरती होगी, जिस का लाल अपने वाहुवल और आत्मवल से सारे ससार पर छा रहा हो, जिसकी दानवीरता के कारण देवता भी उसके आगे नतमस्तक हो, पर मा उसे अपना पुत्र कहने का भी अधिकार न रखती हो । बल्कि वह एक परम प्रतापी महाराज की सन्तान होने के पश्चात भी अपने भाइयो के द्वारा ही पग पग पर धिक्कारा जाता है । अपमानित किया जाता हो। यह भी सोचो कि उस समय मेरे हृदय मे कितनी हूक उठती होगी जब मैं अपने सामने ही अपने पुत्रो को अज्ञानवश एक दूसरे का शत्रु, एक दूसरे के प्राणो का प्यासा देखती हू । वेटा ! यह सभी कुछ मुझे अपने पाप का दण्ड मला है । तुम्हारी मां, अव तुम्हे अपना प्यार समर्पित करने पाई है । तुम से अपनी भूल की क्षमा याचना करने आई है। मेरे लाल ! थूक दो अब अपना क्रोध और मेरी भूल से हो रही अपनी भूल को सुधारने का प्रयत्न करो।"