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________________ ३३० जैन महाभारत कर्ण के मन मे भो करुणा जागृत हो गई। पर एक और भी दु.ख उसके मन मे उठ खडा हआ था, वह था यह कि परम पराक्रमी पाण्डु की सन्तान होने पर भी वह ससार मे रथी की सन्तान कहलाया गया और राजानो ने उसे नीच समझ कर सदा ही उस का अपमान किया। अपने माता पिता के कारण उसे सदा ही अपमान व निरादर के कडवे घुट पीने पडे। उसने कहा- "मा! तुम ने कोई पाप नही किया। मेरे साथ जो कुछ हुआ, कौन जाने वह मेरे ही कर्मो का फल हो। क्षमा की बात कह कर मुझे लज्जित क्यो करती है। मुझे तो आज अपने पर गर्व होना चाहिए कि मैं उस सन्नारी सती की कोख से जन्मा हू जिसकी रग-रग को कोर छ भी नही पाता। फिर भी मै एक स्वाभिमानी व्यक्ति हू । मुझे खेद है तो इस बात का कि.आज से पूर्व तुमने कभी मुझे सच्चाई में अवगत न होने दिया। यही बात रह-रह कर मेरे हृदय मे शूल की , भाति चुभ रही है।" . "वेटा । जैसे तैसे मैं अपने हृदय पर पाषाण शिला रखते हुए सब कुछ सहती रही। मैं लोक निन्दा के भय से मौन रही। पर जब पानी फिर से ऊपर पहुच चुका तो तुम्हे यह रहस्य बताने आई हूँ। मैं तुम्हे बताना चाहती हू कि तुम जिन्हे अपना शत्रु समझ रहे हो, जिसके प्राणो के तुम प्यासे हो, वह तुम्हारे ही भाई है।"कुन्ती ने कहा। उस समय कर्ण के हृदय मे पाण्डवो के प्रति विद्वप की भावना धूधू कर के ज्वाला की भांति जल उठी। उसने आवेश मे पाकर कहा-'तो मा में यह समझने पर विवश हू कि तुम मुझे इस रहस्य को बताने के लिए नही पायी कि तुम ममता और पुत्र स्नेह को रोक नहीं पाई। या तुम्हारे हृदय में अपने परित्यक्त पुत्र के प्रति सहानुभूति का ऐसा तूफान आया जिसे तुम्हारे हृदय पर छाया लोक निन्दा का भूत भी रोक न पाया। बल्कि तुम्हारे मन म पाण्डवों के प्रति भरे हए असीम स्नेह ने जोर मारा है। तुम मेरे बल से भयभीत हो गई हो और जवकि सिर पर आ गया है तुम अपने प्रिय पुत्री के प्रति मेरे हृदय में भ्रातत्व उत्पन्न कर के उनका काना चाहती हो। पवन्य ही यह वात तम्हारे पाण्डवा में
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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