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________________ *"छवीमा परिच्छेट * ****** । * *888 ६ 448 弟弟弟弟弟弟 दुर्योधन का अंहकार । का %%%%$张 के । 张器強強強強強张张免费参张张张 उधर सजय ने हरितनापुर मे प्रस्थान किया. इधर धृतराष्ट्र उसकी वापिसी की बेचैनी में प्रतीक्षा करने लगे। रात्रि को उन्हें नीद भी न पाई। बिस्तर पर पडे पडे वे करवट बदलते रहे। जब किसी प्रकार भी उन को मानसिक विकलता शात न हुई तो उन्होंने विदुर को बुलाया। बोले - "सजय तो शाति दूत बन कर गा है, पर मेरा मन बहुत विकल है। मैं सन्धि व शाति चाहता हूँ। तुम भी बताओ कि क्या होना चाहिए। दुर्योधन तथा कर्ण तो मन्धि की बात भी सुनना गवारा नहीं करते। क्या किया जायर की बात भार क्या होना। मैं सन्धित गत बन कर विदुर जी ने धतगप्ट को समझाते हए कहा-"गजन् ! नीति तो यही कहती है कि पाण्डवो को राज्य वापिस देना ही उचित है। यदि धर्म से घणा है तो कुट नीति और युक्ति का भी यही तकाजा है क्यों कि स्पाट है, श्री कृष्ण चाहे नि.शस्त्र हो कर भी पाण्डवो के साथ है, और मत्स्य तथा पांचाल की सेनाएं पाडवों की और से युद्ध मे उतर रही है तो भी हमारा पाण्डवो पर विजय पाना असम्भव है। इस लिए आप किसी भी प्रकार दुर्योधन को समझाए कि वह हठ न करे। सन्धि करले, यदि वह बडा राज्य ही चाहता है, तो अपने बाहुबल से अपने राज्य का विस्तार करे।" इसी प्रकार विदुर जी गई रात तक धृतराष्ट्र को समझाने
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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